कविता

निकला मेरा दिवाला

दिन भर की भगदौड़ और
रात की नींद के बाद
जैसे ही मुझे मिला मौका,
तीन दिनों के खर्चे देख चौका,
बीबी बच्चों ने कोई फरमान टांगा नहीं था,
किसी ने कुछ भी मुझसे मांगा नहीं था,
दिखावे और प्रचार से मैं हार गया था,
अपनी घर गृहस्थी का संतुलन
अपने ही हाथों बिगाड़ गया था,
झालरों ने बिजली बिल बढ़ा दिया,
मिठाइयां व फटाकों ने मेरा
आगे मंजिल बढ़ा दिया,
रखे खुले दरवाजे रात आती रकम के आस में,
आएगी स्वयं लक्ष्मी मेरे निवास में,
आयी न देवी लक्ष्मी पर घर चोर आ गया,
नकदी रकम और टी वी चुटकी में उठा गया,
किस्मत के चोंचले ने दे दिया मुझे दगा,
त्यौहारी जुनून में मैं तो रह गया ठगा,
न हाथ आया कुछ भी
था जो वो भी चला गया,
पाखंडी चक्करों से मैं तो छला गया,
मिल गया नया सबक मुझे त्यौहार में,
न रो सका न हंस सका अपनी हार में,
लानत है मुझे शिक्षित होकर भी
अशिक्षित ही बन गया,
बेवकूफों की कतार का ऊंचा
पिरामिड ही बन गया,
दाल,चावल,रोटी के लिए मर मर कमाऊंगा,
नादानी का यह किस्सा किसको सुनाऊंगा,
अब कसम ये खाता हूं
मनाऊंगा न कोई त्यौहार,
अंधविश्वास और पाखंडों पर करूंगा
जीवन भर कड़ा प्रतिकार।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554