स्याही की उड़ान
फिर से उठाई वो कलम मैंने,
जो थककर गिरी थी कभी,
स्याही में मिला दर्द का दरिया,
अश्कों से भीगी हर एक सदी थी।
कितनी रातें रोई वो कलम,
सपने बिखरे हुए पन्नों पर,
हर लफ्ज़ में थी बस मायूसी,
हर कहानी थी अधूरी।
तन्हाई में खोई हुई,
वो कलम अब फिर जिन्दा है,
जैसे हर जख्म अब भरता हो,
शब्दों में उसकी उम्मीद जिंदा है।
अब लिखूँगा मैं नये फसाने,
आवाज़ दूँगा उन खामोशियों को,
जिनके लब कभी बोले नहीं,
उन दर्द भरी बंद गुफ्तगू को।
हर बूंद स्याही की अब,
सिर्फ लफ्ज़ नहीं, चीखें होगीं,
आवाज़ें उठेंगी हर कोने से,
अब ख़ामोशियाँ नहीं झुकेंगी।
आओ मिलकर हम सब चलें,
नयी सुबह का चिराग़ जलाएँ,
जहां हर दिल बोल सके,
और हर हाथ कलम बन जाए।
अब हर लफ्ज़ बोलता है,
सिर्फ ख़ामोश नहीं रहता,
दर्द को बदलता है अमन में,
नफरत को बदलता है मोहब्बत में।
हर बूंद से बहेगी वो बातें,
जो दिलों को जोड़ देंगी,
रंग लाएगी हर स्याही,
जिनसे इन्सानियत खिल उठेगी।
न रहे कोई पर्दा, न हो कोई डर,
सबकी आवाज़ एक रंग बन जाए,
किसी की नज़र न फिर फिसले,
ये कलम अब तहरीर-ए-इंसाफ़ कहलाए।
— अवनीश कुमार गुप्ता