राजनीति

लोकतंत्र में सहभागिता की आवश्यकता

प्रशासनिक अधिकारियों का जनता से दूर होना कोई नई बात नहीं है, परंतु आज के लोकतांत्रिक तंत्र में यह दूरी अत्यधिक चिंताजनक रूप ले चुकी है। यह कैसी विडंबना है कि जिन लोगों के कर से यह तंत्र चलता है, उन्हीं के मुद्दे हाशिए पर धकेल दिए जाते हैं। अधिकारी, जो कभी जनता के सेवक माने जाते थे, अब अपनी सुविधाओं और अधिकारों के किले में बंद होते नजर आते हैं। उनकी कार्यशैली ऐसी है मानो जनता से कोई लेना-देना ही न हो। रिपोर्ट और आँकड़ों के खेल में उलझे ये अधिकारी वास्तविकता से इतनी दूरी बना लेते हैं कि आम आदमी की समस्याएं उनके लिए महज एक फाइल नंबर बनकर रह जाती हैं।

आधिकारिक उदासीनता का यह माहौल भ्रष्टाचार और अनियमितताओं को बढ़ावा देता है। ग्रामीण इलाकों में विकास कार्यों की गुणवत्ता का स्तर इतना गिर गया है कि जनसाधारण को मूलभूत सुविधाओं के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। स्वास्थ्य, शिक्षा, और आधारभूत संरचना जैसे क्षेत्र में सरकारी योजनाओं का प्रभावकारी कार्यान्वयन नहीं हो पाता है। उदाहरण के लिए, जब कोई ग्रामीण समुदाय सड़क या पानी की आपूर्ति की मांग करता है, तो अधिकारी इसे गंभीरता से नहीं लेते। अधिकारी, अपनी मोटी तनख्वाहों और पद की गरिमा में खोए, यह भूल जाते हैं कि उनका असल उद्देश्य जनता की सेवा है, न कि सुविधाओं का आनंद लेना। उनके काम करने के तरीकों में पारदर्शिता का अभाव साफ झलकता है, जिसका खामियाजा सीधे जनता को भुगतना पड़ता है।

जब स्थानीय प्रशासन को जनहित के मुद्दों को नजरअंदाज करते देखा जाता है, तो इससे आम जनता में आक्रोश और असंतोष की भावना जन्म लेती है। उदाहरण के लिए, ग्रामीण क्षेत्रों में जल आपूर्ति के मुद्दे पर नजर डालें। कई बार अधिकारियों द्वारा दिखाए गए आंकड़े और वास्तविकता में बड़ा अंतर होता है। अधिकारियों की फाइलों में जल आपूर्ति की स्थिति “संतोषजनक” होती है, जबकि जमीनी स्तर पर लोग पानी की एक-एक बूंद के लिए तरसते हैं। ऐसी स्थिति में, आम जनता की समस्याओं का समाधान नहीं होने से उनके अंदर प्रशासन के प्रति असंतोष और निराशा बढ़ती है। यह स्थिति नागरिकों के लिए चिंता का विषय बन जाती है, और अंततः इसका प्रभाव समाज के समग्र विकास पर पड़ता है।

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या प्रशासनिक अधिकारियों को भी जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का एहसास दिलाने का समय आ गया है? जन अपेक्षाओं और अधिकारियों के बीच की इस बढ़ती खाई को कम करने के लिए कुछ ठोस कदम उठाए जा सकते हैं। सबसे पहले, अधिकारियों का नियमित क्षेत्र-निरीक्षण अनिवार्य होना चाहिए, ताकि वे सीधे जनता से रूबरू हो सकें और उनके मुद्दों को गहराई से समझ सकें। इस तरह के निरीक्षण से अधिकारियों को वास्तविकता का आभास होगा और वे समस्याओं के समाधान के लिए सही दिशा में कदम उठा सकेंगे।

दूसरे, उनकी कार्यप्रणाली में पारदर्शिता लाने के लिए उन्हें सार्वजनिक फीडबैक और रेटिंग के आधार पर आंका जाना चाहिए। यदि जनता को यह महसूस हो कि उनकी राय का सम्मान किया जा रहा है, तो उनकी उम्मीदें और विश्वास प्रशासन पर बढ़ेगा। इस तरह के फीडबैक तंत्र से अधिकारियों को अपनी गलतियों को सुधारने का अवसर मिलेगा और वे बेहतर कार्य करने के लिए प्रेरित होंगे। इसके अलावा, यदि अधिकारी अपने कार्यों का रिपोर्ट कार्ड जनता के सामने प्रस्तुत करें, तो इससे उनकी कार्यप्रणाली में और अधिक पारदर्शिता आएगी।

तीसरे, पदस्थापना के बाद अधिकारियों के लिए एक प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन किया जाए, जिसमें उन्हें स्थानीय समाज और संस्कृति से परिचित कराया जा सके। इससे अधिकारी उन मुद्दों को समझने में सक्षम होंगे जो क्षेत्र की विशेषताओं और जनसंख्यात्मक संरचना से जुड़े हैं। उदाहरण के लिए, यदि अधिकारी स्थानीय भाषा और संस्कृति के बारे में जागरूक होते हैं, तो वे बेहतर संवाद स्थापित कर पाएंगे और लोगों की समस्याओं को अधिक गहराई से समझ सकेंगे। 

यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यदि अधिकारी जनता की समस्याओं के प्रति संजीदा नहीं होते, तो लोकतंत्र का असल उद्देश्य अधूरा रह जाएगा। लोकतंत्र में जनता की आवाज का स्थान सर्वोपरि है और यह आवश्यक है कि अधिकारी अपनी सोच में बदलाव लाएं और जनता के साथ जुड़ाव महसूस करें। इस संदर्भ में, नागरिक समाज और गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। वे न केवल अधिकारियों की जिम्मेदारियों को रेखांकित कर सकते हैं, बल्कि जनता की समस्याओं को उठाने में भी मदद कर सकते हैं।

यदि हमें एक प्रभावशाली लोकतंत्र की आवश्यकता है, तो हमें इस बात को सुनिश्चित करना होगा कि अधिकारियों को जनता की समस्याओं का सही ज्ञान हो और वे उन पर कार्य करने के लिए प्रेरित हों। इसके लिए, सरकारी नीतियों में ऐसी व्यवस्थाएं शामिल की जानी चाहिए, जो अधिकारियों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाएं। उदाहरण के लिए, अधिकारियों की नियुक्ति और पदोन्नति के मानदंडों में जनता की संतुष्टि को शामिल किया जा सकता है। 

सरकारी नीतियों में सुधार के अलावा, स्थानीय सरकारों को भी सक्रिय भूमिका निभाने की आवश्यकता है। जन सुनवाई का आयोजन नियमित रूप से किया जाना चाहिए, जहां लोग अपने मुद्दे सीधे अधिकारियों के सामने रख सकें। यह प्रक्रिया न केवल अधिकारियों के लिए जनता की समस्याओं को समझने का एक मौका प्रदान करेगी, बल्कि नागरिकों को भी यह महसूस कराएगी कि उनकी आवाज सुनी जा रही है। इसके साथ ही, यदि सरकार स्थानीय मुद्दों पर भी ध्यान देती है, तो इससे अधिकारियों और जनता के बीच का संबंध और मजबूत होगा।

अंत में, यह स्पष्ट है कि लोकतंत्र में जनता और प्रशासन के बीच संवाद स्थापित करना अत्यंत आवश्यक है। अधिकारी यदि अपने कर्तव्यों को समझते हैं और जनता के प्रति जिम्मेदार बनते हैं, तो यह न केवल लोकतंत्र की मजबूती के लिए आवश्यक है, बल्कि समाज के समग्र विकास के लिए भी अनिवार्य है। यदि हम चाहते हैं कि प्रशासन जनता के लिए वास्तविक रूप से काम करे, तो हमें एक ऐसा तंत्र विकसित करना होगा, जिसमें सभी की भागीदारी हो और जहां अधिकारियों को उनकी जिम्मेदारियों का एहसास हो। 

इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए, शिक्षा प्रणाली में भी सुधार की आवश्यकता है। यदि अधिकारी अपनी शुरुआती शिक्षा के दौरान ही सामाजिक उत्तरदायित्व और जनसेवा के महत्व को समझें, तो वे भविष्य में अपने कार्यों में अधिक प्रभावी बन सकते हैं। इससे उन्हें यह समझने में मदद मिलेगी कि वे केवल नौकर नहीं हैं, बल्कि समाज के महत्वपूर्ण अंग हैं।

अंततः, एक सशक्त लोकतंत्र तभी संभव है जब जनता और प्रशासन के बीच एक स्वस्थ संवाद कायम हो। जनता की आवाज को सुनना और उस पर कार्रवाई करना अधिकारियों की जिम्मेदारी है। हमें एक ऐसे समाज की आवश्यकता है जहां अधिकारियों की प्राथमिकता जनता की समस्याएं हों, और जहां वे अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए समाज के विकास में योगदान दें। यदि यह सब हो सके, तो यह न केवल प्रशासनिक सुधार के लिए, बल्कि समग्र विकास और समाज में न्याय और समानता के लिए भी एक महत्वपूर्ण कदम होगा। यही लोकतंत्र की असली पहचान है और यही हमारी आकांक्षाएं हैं।

— अवनीश कुमार गुप्ता 

अवनीश कुमार गुप्ता

साहित्यकार, स्वतंत्र स्तंभकार, समीक्षक एवं पुस्तकालयाध्यक्ष पता: प्रयागराज 211008, उत्तर प्रदेश मोबाइल: 8354872602 ईमेल: [email protected]