याद आते हैं कुआं, ताल-पोखर वाले दिन
जून 2024, दूसरे पखवाड़े के 5 दिन ही बीते थे। सूरज अपनी ही आग में जला जा रहा था। तीखी तेज धूप से पेड़ों की छाया भी सूख कर सिमट गई थी। अपने झुंड से बिछड़ बादल का एक छोटा टुकड़ा धूप से लुका छुपी खेलने में मशगूल था। नीरस व्याकुल शाम थके मजदूर सी घर जाने की जल्दी में थी। शहर के जलस्रोत सूख चुके थे। मेरा ध्यान अपने गांव के जल से लबालब भरे बड़े तालाब की ओर अनायास चला गया। मुझे लगा कि गांव जाकर तालाबों की वर्तमान स्थिति पर एक लेख लिखना चाहिए। हालांकि गांव बहुत दूर तो न था पर नौकरी और घर-परिवार की व्यस्तता एवं जिम्मेदारी उठाते वर्षोंं से गांव जाना सम्भव नहीं हो सका था। पुश्तैनी मकान अब आखिरी सांसें गिन रहा था। दैनंदिन संझवाती, दिया-बाती के अभाव में उपेक्षा के अंधेरे में घिरा मकान ढहने लगा था। लगभग डेढ़ दशक बाद मैं गांव जाने वाला था, सुबह की प्रतीक्षा थी।
उस रविवार की सुबह भी कुछ अलग न थी। गरम हवा मानो पंख बांधकर उड़ रही थी। मीठी चटनी के साथ दो परांठे और चाय उदरस्थ कर पानी की बोतल बैग में रख मैंने गांव की बस का पहला नम्बर पकड़ लिया था। बस की खुली खिड़की से आ रही हवा में शीतलता न थी। सवारियों में ज्यादातर फेरी लगाने वाले थे, दो-तीन विद्यार्थी थे और शादी-विवाह के निमंत्रण जाने वाले दो एक परिवार थे। हां, पीछे की लम्बी सीट पर बैंड बजाने वाले अपने साज लिए बैठे थे। बस में इत्र, पसीने और बीड़ी के धुएं की मिली-जुली गंध पसरी थी। मैं खिड़की के बाहर भागते पेड़ों को देखते झपकी लेने लगा था। अचानक बस के ब्रेक चरमराये और कंडक्टर मुझे झिंझोड़ते हुए बोला, “बाबू जी, आपका स्टाप आ गया, यहीं उतर लें।” मेरे साथ दो फेरी वाले और एक परिवार उतरा, सभी ने अपनी राह पकड़ी। मैंने बोतल निकाल गला तर किया, गमछा सर पर डाला और रजबहे (छोटी नहर) की दाहिनी पट्टी पर चलने लगा। मुख्य सड़क से सौ मीटर की दूरी पर अहीर-आरख समुदाय का पुरवा है। यहां रजबहे के ठीक बगल में एक बड़ा पक्का कुआं हुआ करता था पर अब वह मुझे कहीं दिख नहीं रहा था। कभी रात के दस-ग्यारह बजे तक इस कुएं पर चहल-पहल रहा करती थी। नहाना-धोना, पशुओं को पानी पिलाना, घर के लिए पीने के पानी का यह एकमात्र स्रोत एवं सहारा था। भोर से ही पनिहारने मंगलगीत गाती अपनी-अपनी गगरियां भरने लगतीं। जगत के बाहर की ओर बनी चरही में पशुओं के लिए पानी भरा जाने लगता। भाभी देवर की हंसी-ठिठोली का गवाह बनता वह कुआं कितनी पीढ़ियों के कुआं पूजन की रस्म का साक्षी रहा है। पर अब न कुआं था, न हंसी-ठिठोली के स्वर, न कुआं पूजन की रस्म। हृदय में वेदना की लकीर खिंच गई। सौ कदम बढ़ा ही था कि ध्यान आया वहां से सौ कदम की दूरी पर जामुन का एक बड़ा पेड़ हुआ करता था जिसकी एक डाल कुछ-कुछ पालकी के बांस की तरह टेढ़ी होकर रजबहे की दूसरी पट्टी तक फैली थी। बरसात के मौसम में हम बच्चे अक्सर उस डाल से नहर के पानी में छपाक्-छपाक् से कूदते थे, बंद आंखों से वह दृश्य मानो साक्षात वर्तमान हो उठा था, पर आंख खुली तो निराशा हाथ लगी, अब कोई पेड़ न था। वहां से सड़क मेरे पुरवा की ओर मुड़ी और अब मैं अपने घर-मकान के समृद्ध अतीत के खंडहर में खड़ा था। हर कमरा अटारी की दीवारें गिर चुकी थीं, बस पहचान के लिए कुछ दीवारें जमीन से सिर उठाये सांसें ले रही थीं, शायद मेरे आने की प्रतीक्षा थी उन्हें। सहसा मुझे सिसकने की आवाज सुनाई दी, मैं चारों तरफ घूम गया पर कोई न दिखा। फिर लगा कि कोई मेरी अंगुली पकड़कर खींच रहा है। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था कि तभी दीवारें बोल उठीं, “आने में बहुत देर कर दी बेटा, अब यहां कुछ भी शेष नहीं। क्यों आये हो, चले जाओ अपने शहर।” मुझे लगा टूटी दीवारों पर मेरे बैठे पुरखे सवाल कर रहे हों, झिड़क रहे हों। मैं ख्यालों में खोया था कि तभी एक जंगली खरहा आंगन में उग आई झाडी से निकल बाहर खेत की ओर भाग गया और बबूल में बैठे बगुले पंख फड़फड़ाते उड़ गये। मेरी तंद्रा टूटी। अरे! आंगन का जामुन का पेड़ कहा गया। मुझे याद आया कि बाबा के मना करने के बाद भी मैं चोरी-छिपे पेड़ पर चढ़कर काले चित्तीदार जामुन खाया करता था और एक बार डाल टूट जाने से गिरते-गिरते बचा था। अगर मेरी टूटी हुई डाल नीचे की डाल में नहीं फंसी होती तो, कल्पना मात्र से मेरी देह में सिहरन दौड़ गई। मैं खोई बिखरी स्मृतियों को समेटने में जुटा था। बाहर नीम के नीचे बने कच्चे चबूतरे का अब नामोनिशान न था एक जिसके एक ओर जानवरों के लिए लडौरी बना दी गई थीं। मेरे नाक में निंबोली और जानवरों की सानी एवं खली-भूसा की मोहक महक पसर गई थी। उस खंडहर के वीराने में एक टूटी दीवार में बैठ स्मृतियों का स्रोत कुरेदने लगा था। तो देखा कि घर के बिल्कुल सटी तलैया गायब थी। पिता जी बताया करते थे कि मकान बनाने के लिए मिट्टी खोदने से वह तलैया बनी थी जिसे हम ‘डबरा’ कहते थे। उस डबरे में बारिश का पानी भर जाता और पूरे साल गर्मियों तक काम आता। घर के बर्तन वहीं धुले जाते, पशु-पक्षी पानी पीते, सुबह भोजन हेतु चावल भी दौरी में वहीं धोये जाते। डबरा के चारों ओर कोई मेड़ न थी, खेत के बराबर ही था, बीच में गहरा और फिर ऊपर की ओर उथला होते तीन ओर से खेतों से जुड़ जाता। एक ओर जहां हम प्रयोग करते थे, एक पत्थर की पटिया और कुछ ठोके रख दिए थे। वहीं पर कुछ अन्य पौधे भी लगाए थे। डबरा से सटी बांस की तीन कोट थीं जिस पर बारिश में अपने आप उग आए रेरुआ, लौकी, कद्दू की बेल फैल जाती और चार पांच महीने भरपूर सब्जी मिलती।
बैसाख के बाद डबरा का पानी सूखकर घटने लगता। तब पशुओं के पीने के लिए नहरों में पानी छोड़ा जाता। पुरवा के कुछ हम उम्र तरुण और बच्चे रजबहे से बरहा द्वारा पानी तालाब तक लाते। पाने लाने में कई दिन लगते। जल संरक्षण के प्रति यह समझ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होती जाती। इसी डबरा के पानी से गैरी-खपरा किया जाता, आंवा को बंद करने के लिए पुआल के ऊपर लगाने के लिए गारा भी डबरा से निकालते। इस तरह हर साल डबरा साफ होकर नया रूप धारण कर लेता। डबरा के तीनों उथले हिस्सों में धान अपने आप उग आता जिसे ‘पसही का धान’ कहा जाता था तो पूजा और व्रत-उपवास में प्रयोग किया जाता। घर और डबरा से लगे हमारे खेत थे। धानन और गेहूं की फसलें होतीं, मेंड़ पर अरहर। हमारे खेतों के अंत की ओर एक दो-तीन बीघे का बड़ा खेत पोखर कहलाता था। उसमें देर से पकने वाली धान की बेड लगाई जाती। उसका धान लगभग मकर संक्रांति तक पकता और कटाई होती, उधर दूसरे खेतों में गेहूं बोना शुरू हो चुका होता। इस पोखर के ऊपर के बाहरी हिस्सों में गेहूं बोया जाता, अंदर का हिस्से में होली के बाद तक पानी भरा रहता। सारस और बगुले जलीय जंतुओं मछली-केकड़ा की दावत उड़ाते रहते। तब हमारे गांव में पानी का कोई संकट न था। दस हाथ खुदाई में में पानी निकल आता। फसलों की सिंचाई वर्षा आधारित थी। न खाद न कीटनाशक न ज्यादा पानी। जेठ-आषाढ में घूरे की खाद खेतों में फैला दी जाती, खेत ताकतदार बनते, मिट्टी में पानी का ठहराव अधिक रहता, खूब नमी बनी रहती। जब मैं बड़ा हुआ और अधिक पढ गया तो पोखर को दूसरे खेतों के बराबर समतल करा दिया। बाद में अपनी मूर्खता पर रोना आया कि पोखर जमीन की नमी बनाये रखने के लिए कितना महत्वपूर्ण था, पक्षियों से भी नाता टूट गया। पुरवा के दूसरे डबरे पाट दिए गये, और गांव के तीनों तालाब के भीटों पर मकान उग आये हैं।
आज गांव में भी पानी संकट है। ताल संस्कृति और जल देवता की आराधना के प्रति अनुराग नहीं बचा। खेत प्यासे हैं, पशु बेहाल है, पखेरू व्याकुल और हम मानव अपने सीने पर विकास का तमगा लगाए खुशी से झूम रहे हैं। पर एक सवाल मुंह बाये खड़ा है कि हम आने वाली पीढ़ी को पूर्वजों से मिली समृद्ध धरोहर सहेज कर क्यों न दे पाये? पर हम मौन हैं, अभी भी समय है, अगर चेत सके तो चेत जायें।
— प्रमोद दीक्षित मलय