धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

नारी की महत्ता व अस्तित्व को अवगत कराता पर्व : एकादशी देवउठनी

          हमारे छत्तीसगढ़ में तीज-त्यौहारों का बहुत महत्व है। यहाँ अनेक प्रकार के तीज-त्यौहार मनाये जाते हैं। कार्तिक मास में दीपावली के बाद देवउठनी एकादशी का पर्व मनाया जाता है, जिसे ‘छोटी दीपावली’ भी कहते हैं। इस दिन माता तुलसी और श्रीहरि विष्णु जी का विवाह शुभ माना जाता है।                  कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष के एकादश को देवउठनी एकादशी मनायी जाती है। पौराणिक कथानुसार आषाढ़ शुक्ल पक्ष से कार्तिक शुक्ल पक्ष चार माह तक भगवान श्रीहरि विष्णु जी क्षीरसागर में शयन करते हैं।  भगवान विष्णु के शयनकाल में कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता है। कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष के दिन चार माह की निद्रा से जागृत होने के बाद देवउठनी एकादशी मनायी जाती है। भगवान विष्णु जी के साथ-साथ सभी देवताओं की भी पूजा की जाती है। इसी दिन से शुभ एवं मांगलिक कार्यों का प्रारंभ होता है। कहा जाता है कि वृंदा राक्षस कुल में जन्मी एक कन्या थी। राक्षस कुल में जन्म लेने की बाद भी वह भगवान विष्णु की परम भक्त थी। जब वह विवाह योग्य हुई तब उसका विवाह जालंधर नाम के राक्षस के साथ हुआ। वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी। सदैव अपने पति की सेवा में लगी रहती थी। अपने पति जालंधर को हर समस्या से बचाती थी। वह भगवान की भक्ति कर के उनकी रक्षा करती थी।
          एक बार भीषण देवासूर संग्राम हुआ। जालंधर एक बहुत बलशाली दानव था। जब देवताओं से युद्ध करने जालंधर जा रहा था, तभी वृंदा ने कहा – “हे स्वामी मैं आपकी विजयी होने के लिए घोर तपस्या करूँगी। भगवान से प्रार्थना करूँगी कि जब तक आप विजय लौटकर नहीं आयेंगे, तब तक मैं तप में लीन रहूँगी। जालंधर युद्ध में चला गया। वृंदा अपने तप में लीन हो गयी। वृंदा के तप का प्रभाव देवताओं को दिखने लगा। युद्ध में देवताओं की हार होने लगी। तभी देवताओं ने श्री हरि विष्णु जी के पास जाकर प्रार्थना करने लगे- ” त्राहि माम…! त्राहि माम…! हे प्रभु ! हमारी रक्षा कीजिए। युद्ध में हम देवतागण हारने लगे हैं। यह वृंदा के तप का प्रभाव है। पर अब जैसे भी हो, वृंदा का तप भंग होना ही चाहिए। हमारी मदद कीजिए स्वामी। भगवान विष्णु बोले- “वृंदा मेरी परम भक्त है। मैं उनके साथ छल नहीं कर सकता। देवतागण विनती करने लगे, तब विष्णु जी देवहित को ध्यान रख जालंधर का वेष धारण कर के वृंदा के द्वार पर पहुँचे। उन्हें देखकर वृंदा खुश हो गयी; और पूजा छोड़ दी। उसकी ईश्वर के प्रति एकाग्रता ध्वंस हुई। उसी समय वृंदा का संकल्प टूट गया; और जालंधर मारा गया। जालंधर का कटा हुआ सिर महल में गिरा। तभी वृंदा की दृष्टि जालंधर का वेश धारण किये श्रीहरि विष्णु जी पर पड़ी। उसने श्री हरि विष्णु जी को पहचान लिया। श्रीहरि का छल वृंदा समझ गयी। उसने श्री विष्णु जी को श्राप दे डाला। श्रीहरि विष्णु जी एक पत्थर बन गये। वृंदा अपने पति का सिर लेकर सती हो गयी। उसके राख से पौधा निकला। श्री विष्णु जी उस पौधे का नाम तुलसी रखा; और कहा कि मैं हमेशा तुलसी के साथ पत्थर रूप में रहूँगा। शालिग्राम के नाम से मुझे जाना जाएगा। तब से इन दोनों की एक साथ पूजा होती है।
         कार्तिक माह में उनका विवाह हुआ था,तब से आज तक लोग इस दिन को तुलसी विवाहोत्सव के रूप में मनाते आ रहे हैं।

छत्तीसगढ़  रीति रिवाज

           हमारे छत्तीसगढ़ में विभिन्न रीति -रिवाज हैं । इस पर्व को अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग ढंग से मनाया जाता है। इस दिन गन्ना-पूजा का विशेष महत्व होता है। लोग अपने-अपने घरों में गन्ना की पूजा करते हैं। इसी दिन से गन्ना की पहली कटाई की जाती है। इसलिए इसकी पूजा होती है।  तुलसी विवाह के दिन महिलाएँ व्रत रखती हैं। सुबह से शाम तक पूजा-पाठ में लीन रहती हैं।

पूजा सामग्री

          चावल आटे का दीया, गन्ना, कलश, आम्रपत्र, घी, चंदन, गुलाल, कुमकुम, पीला अक्षत,पीला वस्त्र,अगरबत्ती, हल्दी, कपूर,धूप,सुपारी, दूबी, फूल-माला व श्रृंगार समान-साड़ी, लाल चुनरी, चूड़ी, बिंदी; साथ ही नारियल,लाल कांदा, कोचई, चना भाजी, बेर इत्यादि चढ़ाते हैं।

पूजा की विधि
          
           इस दिन पुरुष व महिलाएँ दोनों व्रत रखते हैं। इसे एकादशीव्रत के नाम से जाना जाता है। अपने व्रत को पूर्ण करने के लिए सबसे पहले तुलसी माँ को लाल चुनरी और साड़ी से सजाते हैं। चौकी में पीला वस्त्र बिछाते हैं। उस पर कान्हा जी को बिठाते हैं। उसके सामने कलश में चावल भर कर आम की पत्तियों से सजाते हैं। उसके ऊपर चावल आटे के घी का दीया रखते हैं। गोबर से गौरी-गणेश बनाते हैं। आजकल गोबर नहीं मिलने के कारण दो सुपारी में रुई को भिगाकर गौरी-गणेश बनाते हैं। गन्ने को मण्डप जैसा सजाकर उसकी पूजा करते हैं। साथ में क्षेत्रानुसार फल-फूल, कांदा, कोचई, नारियल फल आदि तथा भाजी,बेर अन्य सामग्री चढ़ाते हैं। घर-घर रंगोली बनायी जाती है। तुलसी में नारी-श्रृंगार का सामान रखते हैं। महिलाएँ सदा सुहागन रहने की मन्नतें माँगती हैं। घर के सभी सदस्य बारी-बारी से पूजा-अर्चना करते हैं। आरती गाते हैं। गन्ना की पूजा करते हैं। इन सब रस्मों के साथ तुलसी और विष्णु जी का विवाह  सम्पन्न हुआ; माना जाता है। घर के सदस्य खुशी-खुशी बड़ों का आशीर्वाद लेते हैं। बच्चे आतिशबाजी करते हैं। सब प्रसाद ग्रहण करते हैं।
          हमारे छत्तीसगढ़ में एक रिवाज है कि पूजा सम्पन्न होने के बाद एक-दूसरे के घर प्रसाद पहुँचाते हैं। इस तरह छोटी दीपावली पर्व की शुभकामनाएँ देते हैं। इससे लोगों में प्रेम, भ्रातृत्व, एकता जैसे मानवीय भावनाएँ पनपती हैं। कई क्षेत्रों में आज के दिन भी राऊत भाई गायों को सोहई बाँधते हैं। दोहा पारते हैं। फिर उन राऊत भाइयों को विदा करते हुए उन्हें सुपा भर धान व राशि भेंट करते हैं, जिसे “सुखधना” कहा जाता है।

आग तापने की रस्म

          हमारे गाँव-देहात के लोग भोजन ग्रहण करने के बाद एक जगह इकट्ठे होते हैं। घरों में पुरानी टुकनी या लकड़ी को जलाकर आग सेंकते हैं। उसके चारों तरफ परिक्रमा करते हैं। प्रार्थना करते हैं कि हमारे शरीर में किसी भी तरह की बीमारी प्रवेश न हो। हे अग्नि देव ! हमारी रक्षा करना। माना जाता है कि इसी दिन से ठंड की शुरूआत होती है। ठंड से बचने के लिए भी अग्निदेव से प्रार्थना करते हैं।

सामाजिक सन्देश

            यह एक श्रद्धा-भक्ति का त्यौहार है। पर आधुनिकता के चलते धीरे-धीरे ये रीति-रिवाज खत्म होती जा रही है। आजकल शहरों में तुलसीविवाह की रस्म गन्नापूजा तक ही सिमट कर रह गयी है। एक-दूसरे से मेल-मिलाप व प्रसाद-वितरण की रस्में खत्म होती जा रही है। हमें इन रस्म-रिवाजों को जीवित रखनी है; जिससे भावी पीढ़ी देवउठनी पर्व के रीति-रिवाजों से अनभिज्ञ न हो।।

— प्रिया देवांगन “प्रियू”

प्रिया देवांगन "प्रियू"

पंडरिया जिला - कबीरधाम छत्तीसगढ़ [email protected]