कविता

मौसम बदल गया

मुद्दते लग गई चुनने में
एक-एक ईंट दीवार की
जब सफलता के शिखर में पहुँचा
तो मौसम बदल गया था
बच्चे बड़े हो गए थे
फिसलकर चलने वाले
निज पैरों में खड़े हो गए थे
पिता ने विषम परिस्थितियों में पाला था
तन बदन में पड़ गया छाला था
निदाघ में तपकर
समस्त देह में पड़ गया काला था
बढ़ती उम्र के साथ शरीर ढलने लगा
तनुज को सौंपकर कारोबार
चैन की नींद में पलने लगा
बाप का कारोबार जब से
सुत संभाल रहा है
नादान समझ रहा है कि
वह वृद्ध को पाल रहा है।
उसने कभी गौर नही किया
पिता के तपस्या का एहसास
स्वेद परिश्रम और उपवास
पद-पाणि के छाले का संत्रास
टूट गया पिता का विश्वास
फिर धीरे-धीरे श्वास ।।

— चन्द्रकांत खुंटे ‘क्रांति’

चन्द्रकांत खुंटे 'क्रांति'

जांजगीर-चाम्पा (छत्तीसगढ़)

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