दलित मानसिकता
यदि कोई व्यक्ति आर्थिक या सामाजिक रूप से दलित या पिछड़ा हो, तो उसे ऊपर उठाकर सामान्य की श्रेणी में लाया जा सकता है, परन्तु यदि वह मानसिक रूप से ही दलित हो, तो उसके लिए कुछ नहीं किया जा सकता। इसके कई उदाहरण हम प्रतिदिन देखते हैं।
कांग्रेस अध्यक्ष श्री मल्लिकार्जुन खड़गे को ही लीजिए। उनका पूरा परिवार सैकड़ों एकड़ खेती योग्य भूमि का स्वामी है और वे करोड़पति से भी बढ़कर अरबपति हैं। आजकल वे कांग्रेस के अखिल भारतीय अध्यक्ष जैसे दायित्व को सँभाल रहे हैं, फिर भी वे स्वयं को दलित मानते हैं, केवल इसलिए कि उनका जन्म किसी तथाकथित दलित जाति में हुआ था। अब ऐसे दलित का कोई क्या विकास कर सकता है, जिसे स्वयं को दलित कहने का शौक हो, भले ही वह वास्तव में दलित न हो? यही है दलित मानसिकता। इसका नमूना हाल ही में उन्होंने तब दिया, जब उन्होंने फरमाया कि 1948 में उनकी माँ और बहिन को जलाकर मार दिया गया था, केवल वे और उनके पिताजी किसी तरह बच गये थे।
निश्चित रूप से ऐसा ही हुआ था, परन्तु सब कुछ जानते हुए भी उन्होंने यह नहीं बताया कि यह जघन्य कार्य किसने और क्यों किया था। इसको छिपाकर वे यह प्रभाव डालना चाहते थे कि यह कार्य अवश्य ही तथाकथित सवर्ण लोगों ने किया होगा और केवल इसलिए कि वे तथाकथित दलित जाति के हैं। दूसरे शब्दों में, वे इतिहास की एक जघन्य घटना के बहाने हिन्दुओं की विभिन्न जातियों में फूट डालकर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। वह तो भला हो योगी आदित्यनाथ जी महाराज का, जिनको खड़गे जी का पूरा इतिहास ज्ञात था और उन्होंने सार्वजनिक रूप से सबको बता दिया कि उनकी माँ और बहिन को जलाकर मार डालने का यह जघन्य कार्य हैदराबाद के तत्कालीन निजाम और उसके हत्यारे रजाकार सैनिकों ने किया था। यह स्पष्ट होते ही खड़गे जी के मुँह पर ताला लग गया, क्योंकि वे किसी भी तरह कटासुर समाज को किसी बात के लिए दोषी ठहराकर अपने वोट बैंक को नाराज नहीं करना चाहते।
दलित मानसिकता का यह अकेला उदाहरण नहीं है। डॉ. अम्बेडकर भी इसी मानसिकता से ग्रस्त थे और आजीवन रहे। उनको अपना कुलनाम प्रदान किया एक ब्राह्मण ने, शिक्षा दी एक ब्राह्मण ने, विदेश भिजवाया एक धनी क्षत्रिय ने और उन्होंने विवाह भी किया तो एक ब्राह्मण महिला से, फिर भी वे जीवनभर ब्राह्मणों से घृणा करते रहे और कभी अपनी इस दलित मानसिकता से मुक्त नहीं हो सके। देश के स्वतंत्रता संग्राम में उनका योगदान शून्य था और वे हमेशा हर सम्मेलन में अंग्रेज शासकों के प्रतिनिधि के रूप में सम्मिलित होते रहे, फिर भी देश ने उनको संविधान का ढाँचा बनाने की जिम्मेदारी दी और पहले केन्द्रीय मंत्रिमंडल में कानून मंत्री भी बनाया, फिर भी वे इस मानसिकता से बाहर नहीं निकल सके।
अभी कल तक मेरी फेसबुक मित्र सूची में एक महिला थीं- अनामिका सिंह। प्रोफाइल पर लगाये गये चित्र में पहनी हुई साड़ी, चश्मे आदि से वे कोई संभ्रान्त महिला और किसी कॉलेज की प्रोफेसर लगती हैं, लेकिन इसी तरह की दलित मानसिकता से पीड़ित हैं। उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर एक गजलनुमा कविता लगायी, जिसमें तथाकथित दलितों पर तथाकथित सवर्णों के काल्पनिक अत्याचारों का बखान किया गया था। इस पर मैंने अपनी टिप्पणी में लिखा कि ”आप इस तरह की कविताएँ लिखकर हिन्दू समाज में विभाजन की दीवारें खड़ी करने में अपनी प्रतिभा का दुरुपयोग कर रही हैं। यदि आपको दलितों की वास्तव में चिन्ता है, तो आपको उन कटासुरों पर लिखना चाहिए जो पूरे देश में दलितों पर अत्याचार कर रहे हैं।“ मेरी इस टिप्पणी का उन महोदया ने कोई उत्तर नहीं दिया, बल्कि मुझे ब्लॉक करके अन्तर्धान हो गयीं।
यह होती है दलित मानसिकता। इसका किसी के पास कोई इलाज नहीं है, आगरा और राँची के पागलखाने में भी इनका इलाज नहीं हो सकता। इनका इलाज तभी हो सकता है, जब जोगेन्द्र नाथ मंडल की तरह इनको कटासुरों के किसी समाज में रहने का अवसर मिले और वहाँ उनको ऐसे ही अनुभव हों, जैसे मंडल साहब को हुए थे।
— डॉ. विजय कुमार सिंघल
कार्तिक शु. 14, सं. 2081 वि. (14 नवम्बर, 2024)