काम का सम्मान
काम का सम्मान
“यार रघु, तुम्हें अब भी सब्जी का ठेला लगाते हुए संकोच नहीं होता ?”
“संकोच ? क्यों भला ? पिछले 26 साल से मैं ये काम कर रहा हूँ। अब काहे का संकोच ?”
“अरे भाई, अब तो तुम्हारा बेटा डी.एस.पी. बन गया है। क्या सोचता होगा वह भी। भाई, अब तो तुम्हें घर में बैठ कर आराम करना चाहिए।”
“हूँ, देख भाई, मेरी नज़र में कोई भी काम छोटा नहीं होता। यह बात मेरा बेटा भी अच्छे से जानता है। वह भी मुझे कई बार ये काम बंद कर आराम करने के लिए कह चुका है। पर भाई अपना तो कॉन्सेप्ट क्लीयर है। जब तक मेरे हाथ-पैर चलते रहेंगे, काम करता रहूँगा। मैं अपने बेटे को भी हमेशा समझाता हूँ कि बेटा, कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता। सबका अपना अलग ही महत्व है। इसके साथ ही हमें कभी अपनी जड़ से कट कर नहीं रहना चाहिए। यही कारण है कि वह भी रोज सुबह सोकर उठते ही अपनी मम्मी और मुझे ही नहीं, इस ठेले को भी प्रणाम करता है; क्योंकि वह जानता है कि आज उसके पास जो कुछ भी है, उसमें इस इस ठेले की भी महत्वपूर्ण भूमिका है।”
“वाह यार, सैल्यूट है तुझे और तुम्हारे बेटे की सोच को।”
- डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर छत्तीसगढ़