सामाजिक
मनोज, सोशल मीडिया- इंस्टाग्राम, ट्विटर, फेसबुक पर ही नहीं; प्रत्यक्ष सामाजिक संपर्क में भी अग्रणी ही था। सभी के दुःख-सुख में भागीदारी करता था। दिखावे के लिए नहीं, वह दुःख-सुख में तादातम्य बिठाकार उनकी संवेदनाओं का साझीदार बन जाया करता था। सच्चे अर्थो में सहानुभति ही नहीं, परानुभूति वाला प्राणी था। उसकी सामाजिकता का लाभ बाहरी ही नहीं, परिवार व गाँव के लोग भी उठाया करते थे। इसी कारण उसका मानसिक व शारीरिक स्वास्थ भी नकारात्मक रूप से प्रभावित होता जा रहा था।
देशभक्ति की भावना से परिपूर्ण ‘तिरंगा रैली’ का आयोजन था। उसे सफल बनाने के लिए मनोज एक माह से जी-जान लगाए हुए था। नौकरी भी करनी थी। आज व्यस्तता के कारण नौकरी पर जाने में विलंब हो गया था। अधिकारी की डांट भी खानी पड़ी; अनुपस्थिति लगी वह अलग। इस प्रकार काम का तनाव भी उसे लगातार प्रताड़ित कर रहा था।
माँ ने सुबह से कुछ नहीं खाया था। घर आते-आते दोपहर हो गई। बुजुर्ग माता-पिता सुबह से ही प्रतीक्षारत थे। माँ, भूखे पेट होने के कारण दवा भी नहीं ले पाई थी।
उसकी पत्नी ने गुस्से में कुछ बनाया नहीं था। स्कूल जाते बच्चे के टिफिन में भी बिस्कुट की पैकिट रख दी थी। जिम्मेदारियों के बोझ तले, कुछ कंजूस हो गई थी। अतः सुबह से न कुछ खाया था और न ही अपने सास-ससुर के लिए कुछ बनाया था। उसे यह भी लगता था कि सास-ससुर के लिए कितना भी करे। ये तो उसकी बुराई ही करते हैं। उसी के गले पड़ गए हैं। खिलाए भी और सुने भी, और भी तो बेटे-बहू हैं, हम ही क्यों करें?’’
माँ! बेटे के तनाव को देखते हुए, कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी। उसकी साँसे उखड़ रही थीं। हिम्मत करके कहना ही पड़ा, ‘बेटा! सुबह से कहाँ था? बहू ने सुबह से खाने के लिए कुछ बनाया भी नहीं।’
मनोज माँ-बाप की नजर बचाकर अपनी पत्नी के कमरे में प्रवेश कर रहा था, झुझला पड़ा, ‘नहीं बनाया तो उसने भी तो नहीं खाया। मैंने कहाँ कुछ खाया है? अभी बारह ही तो बजे हैं। बना देगी खाना। हल्ला क्यों मचा रखा है?’
माँ! बेटे की मजबूरी और विवशता को समझते हुए चुप रह गई। वह कर भी क्या सकती थी? सिवाय आँसुओं के पी जाने के क्योंकि उसका बेटा सामाजिक था।