सुनो न…
मन व्यथित है कुछ कहने को
सुनने को कुछ तुमसे गुनगुनाने को
सब कुछ तो वहीं स्थिर है आज भी
वो रास्ते ,वो मोड़ ,वो सड़कें ,वो कॉलेज
हाँ अलग हैं तो हम सबके जीवन
जिनमें कोई सुखी है तो कोई दुखी
कोई रईस है तो कोई मध्यम वर्गीय
जब भी गुजरती हूँ उन रास्तों से
याद आ जाती हैं वो पुरानी बातें
बचपन की वो मीठी मीठी झिड़कियां
वो सौंधी सौंधी सी मिट्टी की खुश्बू
भोर में दूर से आती आरती की आवाजें
वो छत पर जाकर सुबह पढ़ाई करना
बस एक चिन्ता रहती थी पढ़ाई करने की
स्कूल जाना कितना सुहाना था उन दिनों
घर में न जाने क्यों सूना सूना लगता था
कॉलेज की वो यादें दिल को सुकून देती हैं
रास्ते में ही तो पड़ता है मेरा कॉलेज
जब भी निकलती हूँ लाइब्रेरी की तरफ से
आज भी सखियों का घेरा नजर आता है
कैसे भूल सकती हैं वो अपनी सी बातें
सिमट जाती हूँ जैसे वहीं तो हैं आज भी
मेरी जिंदगी की वो अमिट यादें जहाँ
रूकी सी है आज भी मेरी जिंदगी
थम गयीं हैं रातें जैसे वहीं तो फना है
मेरे जज्बातों की अनसुनी सी फरियादें
— वर्षा वार्ष्णेय, अलीगढ़