सामाजिक

‘वर्तमान समय में महिलाओं की स्थिति

आज समाज में एक मान्यता बनी हुई है कि इक्कीसवीं सदी की महिलाएं आज़ाद है, अपनी मर्ज़ी की मालकिन है, मर्दों की बराबरी करते कॅंधे से कॅंधा मिलाकर कहाॅं से कहाॅं पहुॅंच गईं।
कुछ हद तक ये बात सही भी है।‌ लेकिन कितने प्रतिशत महिलाएं इतनी आज़ाद है जिन्हें मर्दों को जवाब देना नहीं पड़ता? मेरे ख़याल से महज़ ३० प्रतिशत महिलाएं स्वतंत्र हुई है। जो अपनी मर्ज़ी से जीवन जीती है। अपने हर फैसले स्वयं लेती है। अपनी पसंद का पहनती हैं, अपनी राय रखती है। बाकी हमारे आसपास देखेंगे तो कितनी सारी महिलाएं अठारहवीं सदी वाली विचारधारा और पितृसत्तात्मक सोच की शिकार होते दमन सहते जी रही होती है। अगर इतनी ही स्वतंत्र हुई है हर महिलाएं तो फिर अब नारी विमर्श पर पटाक्षेप क्यूं नहीं होता?
Anjum Sharma द्वारा संचालित संगत में जितनी भी बड़ी-बड़ी महिला लेखिकाओं का साक्षात्कार मैंने देखा, सुना उन तमाम महिलाओं की ज़ुबाॅ से मैंने स्त्री विमर्श सुना। वह खुद भी कहीं न कहीं प्रताड़ना का भोग बनी हुई होती है, या उनके आसपास की महिलाओं की स्थिति उनकी ज़ुबाॅं से बयाॅं होती है। तदोपरांत हर महिला लेखिकाओं की कलम से ज़्यादातर रचनाएं नारी विमर्श पर ही लिखी हुई पाई जाती है। साथ ही स्त्री दमन की घटनाएं आए दिन हम पढ़ते हैं, सुनते हैं और टीवी पर देखते हैं।
कोई माने या न मानें लेकिन आज भी बहुत सी लड़कियाँ ऐसी हैं जो शिक्षा के अधिकार से वंचित हैं। वहीं, पढ़ाई-लिखाई के दौरान बीच में ही स्कूल छोड़ देने वाली लड़कियों की संख्या भी लड़कों की संख्या से बहुत ज़्यादा है क्योंकि लड़कियों से यह उम्मीद की जाती है कि वे घर के कामकाज में मदद करें। वहीं, उच्च शिक्षा की बात करें तो बहुत सी लड़कियाँ सिर्फ इसलिए उच्च शिक्षा से वंचित रह जाती हैं क्योंकि उनके परिवार वाले पढ़ाई के लिये उन्हें घर से दूर नहीं भेजते हैं, जिसके चलते उनका अधिकतर समय घरेलू कामों में खर्च होता है और महिलाओं व पुरुषों के बीच समानता का अंतराल बढ़ता चला जाता है। इससे इस मिथक को बढ़ावा मिलता है कि, शिक्षा-दीक्षा लड़कियों के किसी काम की नहीं है क्योंकि अंत में उन्हें प्राथमिक रूप से घर ही संभालना है, शादी करनी है और पति व बच्चों की सेवा करनी है। इतना ही नहीं, लड़कियों को शादी कब करनी है, किससे करनी है, बच्चे कब पैदा करने हैं? ये सब कुछ भी हमारी पितृसत्ता तय करती है।
संविधान में स्त्री और पुरुष को समान अधिकार तो दिए गए हैं, लेकिन समानता दिखती कहाॅं है? समाज अपने नियमों के अनुसार, महिलाओं को संचालित करता है, जिसमें बदलाव की बेहद ज़रूरत है। कहने का मतलब है कि जितना समाज सोचता है उतना नारी का जीवन नहीं बदला। सिर्फ़ कपड़े और रहन सहन से ही समाज आधुनिक हुआ है। सोच आज भी अठारहवीं सदी वाली है। पुरुष और महिला दोनों संसार रथ के दो पहिए हैं, फिर भी स्त्री को मर्द के मुकाबले कमतर और एक पायदान नीचे देखने का नज़रिया आज भी नहीं बदला। हदें इन्तेहाॅं तो यह है कि महिला लेखिकाओं की विडम्बना तो देखिए.! कुछ पढ़ी-लिखी, काबिल और सक्षम लेखिकाएं आज भी अपने पति और परिवार वालों से छुप छुपकर लिखती हैं। अब लिखना कौनसा गलत काम है? यही अतिवाद दर्शाता है कि महिलाओं की स्थिति क्या है।
आज भी घर परिवार से लेकर हर क्षेत्र में महिलाओं का शोषण होता है। हर तीसरी स्त्री पितृसत्तात्मक व्यवस्था को ढोते आज भी अपना अस्तित्व स्थापित करने में नाकामयाब है। अभी वो दौर दूर है जिसमें संसार की सारी महिलाएं आज़ादी की साॅंस लेते अपनी पसंद और अपनी मर्ज़ी से जीवन जी रही होगी। जिस दिन कुछ मर्दों के दिमाग से मर्दाना अहं पिघलकर निर्मल नीर बन जाएगा उस दिन प्रताड़ित नारियों की स्वतंत्रता का सूरज उगेगा।
और यह कहना हरगिज़ अतिश्योक्ती नहीं होगी कि कुछ जगहों पर नारी ही नारी के विकास में बाधाएं डालते स्त्री को उपर उठने नहीं देती। अगर महिलाओं को अपनी स्थिति में सुधार लाना है तो महिलाओं को भी दूसरी महिला का साथ देना पड़ेगा तभी बदलाव संभव है।

— भावना ठाकर ‘भावु’

*भावना ठाकर

बेंगलोर

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