कविता

जिस दिन वे अपने घर आ गए

छुपा नहीं पा रहे हो,
गाहे बगाहे अपनी धृष्टता दिखा रहे हो,
आज के इस सभ्य कहे जाने वाले युग में,
हांक रहे हो मानव अब भी जातिय चाबुक में,
महामहिम बनकर भी,
माननीय बनकर भी,
दिखा दे रहे हो अपनी जाति का चेहरा,
बलात कब्जा किये
पद और पॉवर को बनाकर मोहरा,
अब तो जता दो मंशा चाहते क्या हो,
सड़ी गली व्यवस्था बनी रहे
और कुछ भी न नया हो,
संवैधानिक,लोकतांत्रिक देश में
रह रहे हो मत जाओ भूल,
हर दिन हर पल हर सांस
दिये जा रहे हो शूल पर शूल,
ओछी नीतियों ने देश को कितना तड़पाया होगा,
पल पल आंखों से आंसू छलकाया होगा,
तिल तिल मर मर चिंतन मनन कर
पुरखों ने ये नियम नए लाया होगा,
पर आपके भूख और हवस ने
कितने बार व्याख्या भटकाया होगा,
सारे दुर्गुण काट व्यवस्था जमाया होगा,
मत भूलो आप पर भी कोई भारी पड़ सकता है,
और जिस दिन वे अपने पर आ गए
तुम्हारा सम्पूर्ण वजूद उखड़ सकता है।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554