स्वामी विवेकानंद की संगीत – कलापरक दृष्टि
स्वामी विवेकानंद (12 जनवरी 1883-4 जुलाई 1902)अपने समकालीन भारत के सबसे प्रभावशाली दार्शनिकों और समाज – सुधारकों में से एक थे और पश्चिमी दुनिया में वेदांत के सबसे बड़े प्रसारक थे। उन्होंने भारत में राष्ट्रवाद की अवधारणा में योगदान दिया। वे महान देशभक्त, संत, वक्ता, विचारक, लेखक, मनीषी और मानव – प्रेमी थे। उन्हें घुड़सवारी, तैराकी और कुश्ती का भी शौक था। उनका जन्मदिन भारत में ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
यह बहुत ही कम लोग जानते हैं कि स्वामी विवेकानंद संगीत – कला के अप्रतिम अनुरागी थे तथा कबीर और गुरुनानक कोटि के लब्ध – प्रतिष्ठ कवि भी थे। उनके द्वारा कला, संगीत, गीत, भजन, गायन और वादन के अनेक प्रमाण मिलते हैं। कवि के रूप में आपकी लिखी कृति भी पायी गई है। वे कुशल संगीतज्ञ, प्रतिभाशाली गायक, मृदंग वादक थे। वे बांसुरी, सितार, इसराज और सारंगी बजाने में निपुण थे। रामकृष्ण परमहंस पर लिखे गए लगभग सभी भजन और गीत विवेकानंद द्वारा लिखे और गाए गए हैं।
उन्होंने प्रारंभ में संगीत- शिक्षा अपने पिता से पायी। किशोरावस्था में उन्होंने गुरु वेणी माधव अधिकारी से ध्रुपद, उस्ताद अहमद खाँ से ख्याल गायन और काशी घोषाल से पखावज बजाना सीखा था। गुरु रामकृष्ण से उनका संबंध संगीत से ही बना था। एक दिन किशोर नरेन्द्र (बचपन का नाम) से दो – तीन भजन सुनकर परमहंस ने उन्हें अपना शिष्य बनाना स्वीकार कर लिया।
सांगीतिक पृष्ठभूमि का प्रभाव उनकी संवाद – शैली और भाषण कला पर खूब पड़ा था। उन्हें सुनने के बाद रोमा रोलां ने कहा था –
“उनके शब्द बीथोवेन की संगीत शैली के समान है और उनकी कृतियों में हैण्डल के समूहगानों का लय – साम्य है।”
स्वामी जी की चित्रकला, वास्तुकला और स्थापत्यकला के प्रति गहन अभिरुचि थी। वे प्रमुख कलाओं की समझ रखनेवाले थे। स्थापत्यकला से संबंधित उनकी सूक्ष्म दृष्टि से की गई एक टिप्पणी मननीय है –
” लोग कहते हैं, कलकत्ता महलों का नगर है :परंतु यहाँ के मकान ऐसे लगते हैं, जो विशुद्ध हिन्दू स्थापत्य है। यदि एक धर्मशाला को देखो तो लगेगा कि वह खुली बाँहों से तुम्हें अपने शरण में लेने के लिए पुकार रही है और कह रही है कि मेरे निर्विशेष आतिथ्य का अंश ग्रहण करो। किसी मंदिर को देखो तो उसमें और उसके आसपास देवी वातावरण निश्चय ही मिलेगा। “
देश के नवयुवकों में शक्ति का संचार करने के लिए संगीत के वाद्यों तथा गायन शैली के बारे में स्वामी जी ने कहा – “डमरू श्रंग बजाना होगा, नगाड़े में ब्रह्म रुद्र ताल का दुन्दुभि नाद उठाना होगा, महावीर – महावीर की ध्वनि तथा हर – हर बम – बम शब्द से दिग्दिगंत कम्पित कर देना होगा। जिन सब गीत वाद्यों से कोमल भाव उद्दीप्त होते हैं, उन सबको थोड़े दिनों के लिए अब बंद रखना होगा। “
संगीत के आदर्श रूप के बारे में स्वामी जी ने कहा था कि -” ध्रुपद और ख्याल आदि में एक विज्ञान है, किन्तु कीर्तन. विरह तथा ऐसी अन्य रचनाओं में ही सच्चा संगीत है, क्योंकि वहाँ विशुद्ध प्रेम भाव है। । लोकगीतों की मधुरता, शास्त्रीय संगीत का विज्ञान और कीर्तन भाव, इन्हें मिलाने से आदर्श संगीत की सृष्टि होगी।”
स्वामी जी एक कलामर्मज्ञ की भाँति फोटोग्राफी – चित्रशैली के पड़ने वाले प्रभाव को रेखांकित करते हुए कहते हैं -” पूर्व काल के शिल्पकार अपने-अपने मस्तिष्क के नये – नये भाव निकालने तथा उन्हीं भावों के चित्रों द्वारा व्यक्त करने का प्रयत्न किया करते थे। आजकल फोटो जैसे चित्र होने के कारण मस्तिष्क के प्रयोग की शक्ति और प्रयत्न लुप्त होते जा रहे हैं।”
विवेकानंद जी ने पेरिस की एक प्रदर्शनी में पत्थर की एक मूर्ति देखी। मूर्ति के परिचय में लिखा था – ‘प्रकृति का अनावरण करती हुई कला’ अर्थात शिल्पी प्रकृति के घूँघट को अपने हाथ से हटाकर भीतर के रूप – सौन्दर्य को देखता है।” शिल्पी द्वारा प्रकट भावों की उन्होंने मुक्तकंठ से प्रशंसा की थी।
एक प्रसंग में भारतीय और पश्चिमी कलाओं में अंतर स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा –
” यूनानी कला का रहस्य है, प्रकृति के सूक्ष्मतम विवरणों तक का अनुकरण करना, परंतु भारतीय कला रहस्य है आदर्श की अभिव्यक्ति करना।”
स्वामी जी के अनुसार ‘मनुष्य जिस चीज का निर्माण करता है, उससे किसी अव्यक्त भाव को व्यक्त करने का नाम ही शिल्प है।जिसमें भाव की अभिव्यक्ति नहीं, उसमें रंग – बिरंगी चकाचौंध रहने पर भी उसे वास्तव में शिल्प नहीं कहा जा सकता।’
स्वामी विवेकानंद जी ने नाट्य विधा पर एक विद्वतापूर्ण टिप्पणी करते हुए उसे कलाओं में सबसे कठिनतम कला बताया, क्योंकि इसमें दो इंद्रियाँ एक साथ प्रभावित करती हैं। प्रथम – कान, दूसरी – आँखें। दृश्य का चित्रण करने में यदि एक ही विषय का चित्रण हो जाए, तो पर्याप्त है। परन्तु अनेक विषयों का चित्रांकन करके भी केन्द्रीय रस अक्षुण्ण रखना पड़ता है। दूसरी समस्या है – मंच – व्यवस्था ।इसमें विविध वस्तुओं को इस प्रकार दर्शाना पड़ता है कि केन्द्रीय रस जीवंत प्रतीत हो।
आधुनिक राष्ट्रगुरु, धर्म और अध्यात्मक पथ के पुरोधा एक सन्यासी की यह विलक्षण उक्ति अवलोकनीय है – “नाटक और संगीत स्वयं धर्म हैं, कोई भी गीत क्यों न हो। प्रेम गीत हो या कोई अन्य गीत, कोई चिन्ता नहीं। यदि उस गान में कोई व्यक्ति अपना पूरा आत्मा उड़ेल दे, तो बस उसी से उसकी मुक्ति मिल जाती है।” प्रश्न उठता है कि क्या कलाएँ मुक्ति की ओर ले जाती हैं? तो उत्तर भारतीय अध्यात्म देता है – हाँ। कहा गया है – ‘सा विद्या या विमुक्तये।’
प्राच्य और पाश्चात्य संगीत के विषय में स्वामी जी का कथन है -” पाश्चात्य संगीत बहुत उत्कृष्ट है, उसमें गीत माधुरी, लय चरम सीमा तक प्राप्त हो चुकी है। यह और बात है कि हमारे अनभ्यस्त कानों को पाश्चात्य संगीत रुचिकर प्रतीत नहीं होता। पहले हमारा भी यही ख्याल था, पर मैंने जब उनके संगीत को ध्यानपूर्वक सुनना शुरू किया और उस शास्त्र का अध्ययन किया तो प्रशंसा किए बिना नहीं रह सका। हमारा संगीत केवल कीर्तन और ध्रुपद में ही शुद्ध रूप में जीवित है। जबतक प्रत्येक सुर – हर एक स्तर पर पूरा नहीं गाया जाता, उत्कृष्ट संगीत की सृष्टि नहीं हो सकती।”
स्वामी जी के विचारों के अनेक दुर्लभ रत्न, जिनमें विलक्षण कला – दृष्टि और दार्शनिक चिन्तन प्रतिबिंबित होता है, उनके सारगर्भित व्याख्यानों, पत्रों और वार्त्तालापों में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। इससे उनकी प्रसिद्धि देश में ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्वभर में है।
स्वामी जी कुशल संगीतकार के साथ एक सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक कवि भी थे । यद्यपि उनके द्वारा रचित कविताएँ, गीत और भक्ति – रचनाएँ संख्या में बहुत कम हैं, तथापि वे अत्यंत सारगर्भित एवं प्रिय हैं। उनकी कविताएँ काव्य पक्ष तथा भाव पक्ष दोनों दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। उन्होंने प्रकृति के अलौकिक सौन्दर्य, ईश्वरत्व की महत्ता तथा भारतमाता के प्रति समर्पण भाव से अभिरंजित काव्य की सर्जना ही अधिक की है, जिसमें काव्य – प्रतिभा और कल्पना शक्ति चरम सीमा को स्पर्श करती है। एक कविता का सार – भाव दृष्टव्य है –
गहन दुःख
वह आनंद है, जो कभी व्यक्त नहीं हुआ
और अन्भोगा, गहन दुःख है
अमर जीवन, जो जिया नहीं गया
और अनन्त मृत्यु जिस पर –
किसी को शोक नहीं हुआ
न दुःख है, न सुख
न रात है, न प्रात है
सत्य वह है,
जो इन्हें मिलता है
सत्य वह है
जो इन्हें जोड़ता है
वह संगीत में मधुर विराम
पावन छंद के मधु यति है
मुखरता के मध्य मौन
— गौरीशंकर वैश्य विनम्र