कविता

कार्तिक पूर्णिमा

चांदनी बिखरी सुशोभित
धरा को मोहित कर रही है।
प्रकृति प्रेम से निर्मल कल्पित
हृदय को झकझोर रही है।।

अलौकिक नव अलंकृत
आभूषणों सी लग रही है।
नील गगन में समाहित
सोलह श्रृंगार भर रही है।।

भाव विभोर मन को परिभाषित
चांदनी सितारों को सूचित कर रही है।
चाँद की पूर्ण श्रृंखला शब्दों को अंकित
सहजता पुष्प विभूषित कर रही है।।

चंचल चितवन मनोरथ संकल्पित
चांदनी तारों के दीप प्रज्ज्वलित कर रही है।
अनन्त की ओर बढ़ता चाँद चिंतित निर्देशित
चांदनी व्याकुलता से पथिक को सम्भाल रही है।।

— सन्तोषी किमोठी वशिष्ठ “सहजा”

सन्तोषी किमोठी वशिष्ठ

स्नातकोत्तर (हिन्दी)

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