लघुकथा

एक छत के नीचे

मकान बहुत बड़ा नहीं था। लेकिन रहनेवाले सदस्य बहुत सारे थे। दादाजी, ताऊजी, चाचाजी,सबके परिवार एक छत के नीचे बड़े प्यार से रहते थे। वह सोच रही थी, हम हैं कि इतना बड़ा घर हैं लेकिन साथ में ऐसे रहते हैं जैसे हर कोई ऐरा गैरा हो। सब अपनी अपनी दुनिया में व्यस्त। अपने मोबाइल में व्यस्त। अपनी गाड़ी लेकर भागता हुआ। न कभी घर में हंसी-मजाक होता था,न खिलखिलाती खनकती हंसी की गूंज सुनाई देती। और ये लोग हैं कि मकान टूटा-फूटा ही था फिर भी कितने खुश हैं। हँसते, मुस्कुराते चेहरे देख उसे ईर्ष्या होती। कैसे कोई खुश रह सकता हैं अभावों में भी? उसके कमरे की खिड़की से दिखती उनके घर की रौनक, चहल-पहल। 

क्यों हम इतने स्वार्थी, दंभी, अहंकारी हो गए है? एक दूसरे संग बतियाना, संग भोजन करना, थोड़ा सा हंसी-मजाक क्यों नहीं कर पाते। 

जीने के लिए हैं जिंदगी, हम तो बस यह बोझा ढो रहे हैं।  दिखावे के लिए भागम भाग। न अपने लाडलों के साथ खेलने का वक्त है, न अपने बड़े बुजुर्गों के साथ बतियाने की फुर्सत। क्यों ये आपाधापी? किसके लिए?

बेबी को पालनाघर लेने जाने का समय हो गया है। थोड़ी सी भी देर हो जाएगी तो बहुत सुनाएगी बहु। आजकल बहु की चलती हैं। सास तो बस जब तक सांस हैं, चलती फिरती है, स्वस्थ, मस्त है साथ रहे। वृद्धाश्रम भेजते तनिक दुःख न होगा इन्हे। 

वह भूतकाल में कब पहुँच गयी, उसे पता भी नहीं चला, दौड़-दौड़ कर बच्चों के लिए ये करो, वो करो। समय फुर्र से उड़ गया। बच्चों ने अपने-अपने लक्ष्य हासिल कर लिए। उनके यशोगान में वह अपनी जीत खोजती रही। लेकिन कड़वे यथार्थ से टकराकर आज उसका गुमान चकनाचूर हो गया जब नौकरी की तलाश में दर-दर भटकते छोटे बेटे ने उससे पूछा, “आपने किया ही क्या हैं हमारे लिए?”

वह भी अब तक समझ न पायी, उसने किया ही क्या हैं। आँखों से झर झर बहते आँसुओं से तकिया भीगता रहा।             

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८