उम्र भर
वो देता रहा उम्र भर दिलासा,
और मरने के समय का नहीं हुआ खुलासा,
उसने कहा था कि
सुधार देंगे तुम्हें या तुम्हारे समाज को,
खत्म कर देंगे चली आ रही रिवाज़ को,
बाद में पता चला कि
असल में सुधारने की बात तो धमकी थी,
धोखे में रखने से उसकी किस्मत चमकी थी,
वो तब भी वंचित था,
आज भी है और आगे भी रहेगा,
लफ्ज़ो की मीठी चाशनी में डूबा सब सहेगा,
इधर पूरा कौम जीवित है इस उम्मीद में
कि उम्र के किसी दौर में तो आएगा सवेरा,
सब सम हो न हो कोई लंपट लुटेरा,
मगर आस और आश्वासन तो
सदा से वंचितों को वो देता आया है,
अपनी वादों,बातों को कभी नहीं निभाया है,
क्योंकि वो बना रहना चाहता है
औरों से उच्च और रहबर,
दे दे कहर, क्योंकि
उन्हें फर्क नहीं पड़ता कोई ठोकरें खाये दर दर,
जब जब किसी ने आस के फूल खिलाना चाहा,
वो कुटिल चालाक सजग रह
पूरी तरह मिट्टी में मिलाना चाहा,
सभ्यता के इस दौर में
क्या कोई प्रकाशपुंज कहीं से आएगा,
या देखना पड़ेगा उम्र भर वहीं मंजर
जिसमें अशिक्षा,पाखंड या अवैज्ञनिकता
बड़ी होशियारी से फैलाया जाएगा।
— राजेन्द्र लाहिरी