पुकार
अच्छा बताओ कब कब और किसने सुना है
वंचितों हाशिये में पड़े लोगों की पुकार,
जिन्हें सर्वशक्तिमान मानते आए हैं
वो भी नहीं सुन पाता सिसक व चीत्कार,
वे किसी पर भी विश्वास कर
कर लेते हैं आंख मूंद भरोसा,
जिन्हें आसमान से लेकर धरती तक
मिला है सिर्फ और सिर्फ धोखा,
आज भी नहीं कोई ध्यान दे रहा,
हर वक्त इनकी फिरकी ले रहा,
व्यवस्था में भागीदार न होने वाला
हमेशा सिसकता और तड़पता है,
जिम्मेदार उल्टा उसी पर भड़कता है,
जबकि व्यवस्था वालों की
जिम्मेदारी है सब पर ध्यान देना,
टटोल टटोल कर उनकी
सारी समस्याएं जान लेना,
पर मद में चूर कहां आवाज सुन पाता है,
ज्यादा जोर दे मजलूम अपनी जान गंवाता है,
बात पहुंच पाती है वहां प्रभाव वालों का,
जो प्रतीक बने घूम रहे धवल उजालों का,
कोई कहता है खुद को खुदा देकर मुट्ठी भर अन्न,
अपनी कोठी भर रहा यहां केवल संपन्न,
ये सब सोच लिए कि जिस दिन
संगठित रहना है उचित, रहने से बेकार,
उस दिन इन्हें भी नहीं लगाना पड़ेगा
किसी पत्थर और पत्थरदिल से पुकार।
— राजेन्द्र लाहिरी