कविता

संविधान को रोने दो (व्यंग्य)

संविधान को रोने दो,
शासकों को सोने दो,
जो कभी नहीं हुआ अब वो होने दो,
गड़े मुर्दे उखाड़ो,
अपना मतलब निकलने तक
पल्ला मत झाड़ो,
क्या पता वहां भी
कुछ लाभ हो जाये,
सोयी जनता फिर सो जाये,
आंधी आये,
तूफान आये,
भूकंप आये,
सुनामी आये,
पर अपनी लालच खातिर
पूरा सिस्टम हिला डालो,
भाईचारा के खेत में
नफरत के बीज बोने दो,
संविधान को रोने दो,
राजनीति से यारी निभाओ,
हर जगह दंगे कराओ,
कदम पीछे मत हटाना
चाहे सरे राह नंगे हो जाओ,
पीढ़ियों के शानोशौकत का सवाल है
उनके लिए भरपूर कमाओ,
धर्म बिना राजनीतिक सत्ता अधूरा है,
सन्यासियों का कुनबा भरा पूरा है,
खोता है पहचान अमन की
तो दुनिया से खोने दो,
संविधान को रोने दो,
नीतियां ऐसी अपनाओ,
पूरा सिस्टम किसी एक का हो जाओ,
लोकतंत्र को बदनाम करो,
अधिनायकवाद को सलाम करो,
नियमों के पर कुतरते जाओ,
फिर उसकी जयंती मनाओ,
जिसको भी धनिया बोना है
इत्मीनान से बोने दो,
संविधान को रोने दो,
शासकों को सोने दो।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554