आपकी अनुभूति
करना ही है तो करो अनुभूति,
यूं न टाल दो दिखा सहानुभूति,
इस दिखावे में ही रह जाते हो,
इस मुद्दे पर क्यों खुलकर नहीं आते हो,
कभी झांको उन भूखे पेट
सोने वालों के घर पर,
कभी साक्षात दर्शन दे आओ
पहुंच उनके दर पर,
अनुभूति करो उनके डबडबाये पलक पर,
पानी पी पी परिश्रम करते
आ रही पसीने को छलक पर,
क्या नहीं दिख रहा कूड़े में
भविष्य खोजता बालक,
चुनावी समय अपने दंभ दिखा
कहा था बनूंगा सबका पालक,
जितने हसीन सपनों को जी रहे हो,
मस्त हो सुरा सोमरस पी रहे हो,
वो सब सड़क पर भीख मांग रहे
उन औरतों और बच्चियों की हालात भी देखो,
फटे कपड़ों पर नजर फिरा आंखें मत सेंको,
महसूस नहीं हो रहा क्या बूढ़े की बेबसी,
बेरोजगार करने को मजबूर क्यों खुदकुशी,
रोज सुनामी रोज तूफ़ां झेल रहे आंखों में,
विद्रोह वाला कैसे पहुंच जाता सलाखों में,
संयम भोली भूखी जनता ही बरतती है,
तुम्हारी नाजुक कली भी
बिजली की तरह गरजती है,
क्या किसी अलग तरीके से
दुनिया में आये हुए इंसान हो,
या अमीरों उच्चता भाव वालों के भगवान हो,
यदि बचा हो आँखों में शर्म का थोड़ा सा पानी,
सम भाव नजर की कर दो इन पर मेहरबानी।
— राजेन्द्र लाहिरी