पहाड़ी मरद
“जाने क्यों अमीर मरद फेफड़ों की बीमारी, वो क्या कहते हैं न! टी.बी. का इलाज कराने पहाड़ों पर आते हैं?” सिर पर सूखी लकड़ियों का गट्ठर लिए पेट पर बंधी पट्टी में बच्चे को दूध पिलाने की असफल कोशिश करती हुई सुखनी सोचती जा रही थी.
असफल! असफल इसलिए कि सांझ को रोटी के लिए चूल्हा जल सके, वह सारा दिन तो लकड़ियां बीनने में बिताती और फिर दो सूखे टिक्कड़ खाकर रात को नींद करने की कोशिश करती. न नींद आती, न बबुआ के लिए दूध उतरता. कुछ ढंग का खाए तो नींद भी आए और दूध भी उतरे!
सुखनी का आदमी! पहले वो लकड़ियां बीन कर लाता था और सुखनी अमीर लोगों के घर अनाज बीनती थी. वहां से अनाज और खाना-पीना भी मिल जाता था. जाने कहां से दारू की लत लग गई कि बबुआ के जन्म से पहले ही चल बसा!
कितनी मन्नतें मांगी थी उसके मरद ने बबुआ के लिए, शायद मन्नतों में ही कोई भूल-चूक हो गई होगी, कि खुद जाकर बबुआ को भेज दिया!
“जाने क्यों अमीर मरद फेफड़ों की बीमारी, वो क्या कहते हैं न! टी.बी. का इलाज कराने पहाड़ों पर आते हैं? मेरा तो पहाड़ी मरद पहाड़ों में ही खो गया!” घास-फूस का झोंपड़ीनुमा घर पर सिर से सूखी लकड़ियों का गट्ठर उतारते हुए सुखनी सुबक पड़ी.
— लीला तिवानी