कहानी

यादों का पन्ना….. 

आज नंदिनी काफ़ी पुराने यादों में ना जाने क्यों उलझ गई, या यूँ कह सकते हैं इस उलझन को सुलझाना ही नहीं चाहती थी। वो सोचने लगी खोला जो जिंदगी की किताब का शुरुआती पृष्ठ, याद आ गई काली जी की मूर्ति और आम का वृक्ष। पच्चीस से तीस  वर्षों में छ या सात बार ही नंदिनी औऱ केशव घर से काफ़ी दूर उस छायादार आम के वृक्ष के नजदीक गए होंगे।

केशव, नंदिनी का पड़ोसी था , पारिवारिक दोस्ती भी थी अच्छी खासी।संबंधों में भी काफ़ी गहराई औऱ सच्चाई थी औऱ दोनों परिवारों ने उसे सच्चे मन से निभाई भी।कुछ भी होता नंदिनी  फट से कहती केशव चल ना जरा ऑफिस पहुँचा दे।थोड़ा रोड पर तफरी तो करवा दे।एक दिन केशव ने आवाज लगाई नंदिनी नई कार खरीदी है चल तुझे तफरी करवाता हूँ और निकल पड़े।

दोनों परिवारों में संबंध इतनी अच्छी थी कि कोई टोकता नहीं था।दोपहर जून के महीने में ना जाने वह कौन सा था रास्ता, पर नंदिनी को  इससे तो कुछ भी वास्ता नहीं था।उसे  तो  गाड़ी में घूमने का शौक था और केशव हो  साथ तो पूरा  बेखौफ। अचानक केशव ने गाड़ी रोकी एक पुरानी मंदिर, काली जी की भव्य मूर्ति दोनों ने  जाकर सुमन अर्पित की। फिर केशव  काली जी की शीश पर लगा सिंदूर को अपनी उंगलियों में लगा  लिया। केशव ये  क्या किया तुमने, ऐसा किया जाता है? क्या भगवान ज्यादा आशीर्वाद देते हैं।उसने कुछ नहीं कहा।फिर आया वही आम का वृक्ष, दोनों गाड़ी से उतर कर उस वृक्ष के छाँव तले बैठ गये। केशव ने कहा नंदिनी जरा देख इधर,नंदिनी ने इतरा कर कहा ले  देख ले जी भर कर। फिर केशव ने वह सिंदूर लगी उंगली को नंदिनी की  मांगों में लगा दिया।ना जाने उस पल क्या जिया था उन्होंने। नंदिनी की ऑंखें अपने आप ही  मूँद गईं , केशव ने  कहा आँखे  क्यों बंद की, नंदिनी ने  कहा पता नहीं खुद ब खुद हो गई।ना जाने क्या हुआ था, मौन  अधर झुकी नजर,वह अपलक देखता रहा औऱ मन  ही मन सोचा बिल्कुल वैसा ही  सिर्फ इतना कहा।फिर वापस घर लौटने लगे । दोनों ने महसूस किया उसके बाद खुल कर बात नहीं कर पा रहे। पुरे रास्ते ख़ामोशी, नंदिनी ने सिर्फ इतना कहा क्या किया तुमने केशव अब बताओ भला इसे हटाए कैसे, समझते हो सिंदूर पोछना।केशव उसके सिंदूर को पोंछने के लिए हाथ बढ़ाया लेकिन नंदिनी ने उसे वहीं रोक दिया। अब घर भी आ चूका था नंदिनी ने अपनी मांग को छुपाया और एक आवरण चेहरे पर रख कर पहले की भांति कमरे में चली गईं। उसके बाद दोनों पहले की तरह बिल्कुल भी बातचीत नहीं कर पा रहे थे। कुछ था जिसने जुबां पर ताला लगा दिया था लेकिन दिल में नए-नए जज्बात प्रबल हो रहे थे।

 केशव घर का इकलौता लड़का था। उसकी शादी की बात जोरों से चलने लगी औऱ उसकी शादी  कुछ दिनों बाद हो गई, किंतु ना नंदिनी ने नाराजगी दिखाई ना केशव ने।किसी ने  कुछ नहीं कहा। अब नंदिनी की  बारी आई विवाह की। पंडित ने कहा इसकी तो एक शादी हो चुकी है इसके हाथों की रेखा कह रही है। किसी तरह पंडित को कहा गया औऱ  शादी हुई।नंदिनी ने पंडित की बात को दिल से लगा लिया उसकी शादी विधिवत तो नहीं हुई किंतु केशव ने उसके  मांग पर काली जी पर चढ़ाई  सिंदूर तो लगाई ही थी । खैर नंदिनी की शादी हुई।

समय गुजर रहा था,सभी अपने अपने जीवन में व्यस्त।अचानक  इतने वार्षो बाद नंदिनी को वह बक्सा याद आया औऱ  विदाई के वक़्त केशव की माँ की दी हुई वो फाइल , जो केशव की माँ ने  दिया था यह कहते हुए कि केशव ने  दिया है तुम्हें देने को। आश्चर्य की बात यह थी कि उस  बक्शे  पर किसी का ध्यान भी नहीं गया था 

फुर्सत में थी नंदिनी इत्मीनान से उस फाइल को देखना शुरू की।यह तो डायरी थी केशव की लिखी हुई।एक-एक कर दस वर्षों को  उन  पन्नो  में जी लिया।धुंधला गई थी आँखे शब्द नजर नहीं आ रहे थे,अंत लाइन था, कभी हिम्मत ही नहीं हुई नंदिनी तुम्हे अपने मन की बात बताने की। मुझे डर था कहीं तुम बातें करना ना छोड़ दो और हुआ भी वही। जब भी आँखें बंद करता था  तुम भरी हुई मांगों में ही दिखती, सच मानो तुम उस दिन बिल्कुल वैसे ही नजर आई।पता ही नहीं चला यह बचपना था या  अल्हड़ पन, कब प्रेम  में परिणत हो चुका था।क्षमा करना मुझे, तुम्हारे अंतर्मन को अगर व्यथित किया हो। अब तो गंगा जमुना की धारा बह निकली और बुदबुदायी, कहा क्यों नहीं। 

कॉल बेल बजा उन्होंने कहा फिर आँखें फिर फुली है तुम्हारी, आज भी लगता रोई हो पापा को याद करके।लेकिन कह न पाई पापा को नहीं याद की। ना जाने क्या अंदर में था जी भर के रोई।

अब उन्होंने कहा चलो आज तुम्हें मैं तफरी करवाता हूँ।उसी आम के वृक्ष के नीचे पहुँची, फाइल को इनसे छुपा, वही रखा और वापस घर की तरफ।

गाड़ी में कुमार विश्वास का एक गाना चल रहा था “मांग की सिंदूर रेखा तुमसे यह पूछेगी कल, यू मुझे सर पर सजाने का तुम्हें अधिकार क्या है, तुम कहोगे वह समर्पण बचपना था, गर  वहसब कुछ  बचपना था तो कहो फिर प्यार क्या है”|

नींद खुली ये  बालकनी में चाय के साथ मेरा इंतजार कर रहे थे।सामने बहती नदी रोज आवाज करती थी आज उसकी ध्वनि बहुत मधुर लग रही थी शांत, कल कल निर्मल, विमल। लेकिन मन के किसी कोने में वो भावनायें जो उस वक्त नहीं थी,डायरी के पढ़ने के बाद अंतस में चुपके से अपना घर बना चुकी था|जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मकाम वह कभी नहीं आते|

— सविता सिंह मीरा

सविता सिंह 'मीरा'

जन्म तिथि -23 सितंबर शिक्षा- स्नातकोत्तर साहित्यिक गतिविधियां - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित व्यवसाय - निजी संस्थान में कार्यरत झारखंड जमशेदपुर संपर्क संख्या - 9430776517 ई - मेल - [email protected]

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