अनूठा व्रत
अत्यंत शोकग्रस्त होते हुए भी तीन दिन से वह पंछियों का पानी बदलकर दाना डालती, पर दाना-पानी वैसे का वैसा पड़ा रहता. पति के जाने से उसका अधूरापन तो समझ में आता था, पर पंछियों का!
“शायद पंछियों को भी अधूरापन लगता था!” उसकी सूनी आंखें और सूनी हो जातीं!
रोज सुबह उठकर सबसे पहले वह बालकनी में आता. इंतज़ार करते पंछियों के लिए शकोरे में पानी रखता और दाना डालता, तब तक उसकी पत्नि चाय-बिस्कुट ले आती. दोनों चाय पीते और पंछियों के खाने, नाचने और कलरव करने का आनंद उठाते.
तीसरे दिन पति की रस्म पगड़ी के बाद वह बालकनी में आई, तो उसे देखकर पंछियों ने व्रत खोला और दाना खाया, पानी पीया.
व्रत उसने भी बहुत रखे थे, पर ऐसा अनूठा व्रत उसने पहली बार देखा था, वो भी पंछियों का!
— लीला तिवानी