कर्म पथ
आज मेरा इस कंपनी में बतौर प्रशिक्षु पहला दिन था । शाम को निदेशक महोदय ने बुला भेजा । आत्मविश्वास से परिपूर्ण मैं, बिना किसी मानसिक तैयारी के, उनके केबिन में तुरंत पहुँच गया ।
उन्होंने पहुँचते ही, मुझसे मेरी अभिरुचियों के बारे में पूछा । “मैं एक अच्छा चित्रकार हूँ ।” वाक्य सुनते ही , उन्होंने एक कैनवस और पेंसिल देकर कंपनी की बिल्डिंग को रेखांकित करने के लिए कहा और स्वयं फोन पर मशहूर हो गए । उनके, किसी महत्वपूर्ण ग्राहक से बात करने में लगे आधे घंटे के अंदर, मैं उस भवन का एक अति सुंदर रेखा चित्र शेडिंग के साथ कैनवास पर उकेर चुका था । वे, मेरी तरफ फोन रख, मुखातिब हुए । अपेक्षा से बेहतर चित्राकृति देख, वे प्रसन्न हो उठे । तारीफ के साथ ही उन्होंने एक नन्हा सा नोट मुझसे लिखवाया -“अगर किसी को इस चित्र में कोई खामी प्रतीत हो रही हो , तो इस चित्र के नीचे रखी डायरी में कृपया कमियाँ अंकित करने का कष्ट करें ‘. और उसके नीचे मुझे अपना नाम लिखना था ।
अब वह कैनवस नोटिस बोर्ड के शीशे के अंदर उक्त नोट के साथ शोभायमान था । नीचे मेज पर एक डायरी और बंधी हुई कलम की व्यवस्था भी कर दी गई ।अगले ही दिन , जब मैं पुनः प्रशिक्षण कार्य से निवृत हुआ तो निदेशक महोदय का संदेश डायरी के साथ उपस्थित होने के लिए आया । मैंने चित्र के नीचे से डायरी उठाई और निदेशक महोदय के कक्ष में पहुँचा । उनके समक्ष डायरी खोलते समय मेरे हाथों में मुझे हल्का कंपन महसूस हुआ । अनेकों विपरीत टिप्पणी, आलोचनाओं का पुलिंदा थी वह डायरी । जिन्होंने, वर्षों से कभी पेंसिल भी नहीं उठाई थी वह मेरे काम पर भाँति – भाँति की टिप्पणियाँ कर रहे थे । कमियाँ दर्शाते हुए ,संशोधन संबंधी सलाह दे रहे थे । मैं व्यथित हो उठा था । मेरे चेहरे का उल्लास व आत्मविश्वास दोनों गायब हो चुके थे । अनुभवी निदेशक महोदय ने मुझे पानी पिलाया और जीवन का सबसे बड़ा व्यावहारिक पाठ सिखाया- ‘आलोचनाओं और तारीफों के मध्य जूझने की आवश्यकता नहीं होती , कर्मपथ पर निरंतर चलते रहने की आवश्यकता होती है l. उस मध्य आ रहे संघर्षों, बाधाओं से जूझने वाला व्यक्ति वांछित मुकाम हासिल कर सकता है, परंतु तारीफ और आलोचनाओं के मध्य जीता व्यक्ति, मुकाम समय पर कभी भी हासिल नहीं कर पाता है । इसलिए अपने कर्तव्य पथ पर पूर्ण आत्मविश्वास के साथ-साथ आगे बढ़ते रहना ।” यह कहते हुए उन्होंने मेरे कंधे थपथपाए और चाय के दौरान की गई उनकी हल्की फुल्की टिप्पणियों एवं बातों ने मेरी मुस्कुराहट और मेरा आत्मविश्वास पुनः लौटा कर मुझे अपने घर के लिए रवाना होने दिया । मैं अपने निदेशक महोदय की बुद्धिमत्ता का कायल हो चुका था ।
समय की रफ्तार ने हमें एक दूसरे के बहुत करीब। ला खड़ा किया था और आज 20 साल बाद उनकी मृत्यु ने उनकी कुर्सी मुझे थमा दी थी मैं समझ नहीं पा रहा था स्वयं को मैं कैसे अभिव्यक्त करूँ ?
आज, फिर मेरे मन का चित्रकार एक बार पुनः जाग उठा था ।उनके कक्ष में , उनकी कुर्सी पर बैठकर मैंने पुनः अपनी कंपनी की इमारत का चित्र बनाने का प्रयास किया। परन्तु यह क्या ? मेरा शौक तो जीवित था लेकिन अभ्यास के अभाव में मैं वह कौशल खो चुका था । चित्र बन गया था परंतु अनेकों त्रुटियाँ , मेरी निगाहें ही उसमें निकाले दे रही थी । फिर भी मैंने इस बार उस पर नीचे अपना नाम चित्रकार के स्थान पर लिखा और फिर उसी नोट के साथ डायरी और पेन मेज पर रखवाते हुए चित्र को नोटिस बोर्ड पर लगवा दिया । दूसरे दिन शाम को सबके जाने के बाद जब मैंने डायरी उठाई और पढ़ना प्रारंभ किया तो पाया प्रशंसाओं के पुल बंधे हुए थे । पेज दर पेज, पृष्ठ दर पृष्ठ । मेरे मातहत की एक प्रशंसात्मक टिप्पणी तो मेरे जेहन में अंदर तक बैठ गई । लिखा था “सर , कंपनी की बिल्डिंग में कई कमियाँ हैं । काश, बिल्डिंग आपके बनाए चित्र अनुसार होती । थोड़े लहराते से खंभे, हल्के तिरछे दरवाजे , किनारे से उठी छत और लहराती हुई सी बालकनी , तो यह इमारत नैनाभिराम होती ।
आपका अपना बालमुकुंद ।”
मैं समझ चुका था प्रशंसा और आलोचनाओं के मध्य का रास्ता कहाँ से होकर गुजरता है और मुझे याद आ रही थी स्वर्गीय निदेशक महोदय की कही पंक्तियाँ , जो मुझे धकेल रही थीं मेरे कर्म पथ पर ।
कर्मपथ, कर्मपथ, कर्मपथ ।
— बृज बाला दौलतानी,आगरा