हास्य व्यंग्य

टिड्डी दल और नेता (व्यंग्य)

होश संभालने के चालीस वर्ष बाद मुझे इस बात की घनघोर अनुभूति हो रही है कि मेरा भारत देश , न धर्म प्रधान है, न कृषि प्रधान है, न नारी प्रधान है और नहीं पुरुष प्रधान है। तो फिर प्रश्न पैदा होता है कि वह क्या प्रधान है? भारत एक चुनाव प्रधान देश है। इस देश का नागरिक शिक्षा के बिना, जी सकता है। धर्म के बिना भी ‘कुछ-कुछ जी’ जी सकता है। भोजन के बिना ‘थोड़ा-बहुत’ जी सकता है। धन के बिना ‘थोड़ा-सा’ जी सकता है। लेकिन नेता के बिना जीवन असंभव है भाई। संभवतः एक समय ऐसा आए कि वह ऑक्सीजन के बिना जीना सीख ले। लेकिन नेता के बिना ! कैसे साँसें लेगा बेचारा? नेताओं के उत्पादन हमारे देश से अलग-अलग समय पर फसलों से होता है। वर्ष भर होता रहता है। यह फसल खरीफ और रबी की नहीं होती न ही ये खेतों में बोई जाती है। ये बोई जाती मानव की आबादी वाली भूमि पर। और मानव उत्पादन में मेरा देश एक नंबर पर है। अफसोस है जितना मानव के उत्पादन में हम आसमान को चूम रहें हैं, मानवता उतनी ही रसातल की अंतिम सतह में दफ़न हो रही है। कहीं ग्रामपंचायत तो कहीं नगरपालिक या महानगर पालिका के रूप में। अधिक उत्पादन चाहिए तो विधानसभा के खेत जोतिए। और अधिक बहुत बड़े नेता बनना है लोकसभा के खेत आपके लिए खुले हैं। बस आपमें खेत खरीदने की क्षमता होनी चाहिए। मैंने अपने विगत जीवन में इस खेती में अनेक कंगलो॔ का कुबेरों में रूपांतरण देखा है। सोने पर सुहागा तो तब हो जाता है जब परदादा या परनाना की खरीदी गई ज़मीन पर उनकी संतति भी आलू डालकर सोना पैदा कर देती है। मेरे कुछ किसान संबंधी तो इसलिए फाँसी के फंदे पर लटक गये कि सोना समझ कर जिस गेंहू-चॉंवल को बोते थे, समय आने पर वहाँ से बंजर मिट्टी के अलावा कुछ नहीं निकलता था। फिर वे उसी मिट्टी में अपने को इस पंचमहाभूत में विलीन कर देते हैं।
नेतागिरि खेती है या धंधा? ये मेरी समझ से परे है। फिर मेरी विश्लेषणात्मक बुद्धि कहती है कि नेता देश के लिए लाभकारी हो तो खेती और हानिकारक तो धंधा। वैसे आजकल नेता देश के लिए लाभदायक कम नुकसानदायक अधिक हो गये हैं। धंधे में लाभ -हानि दोनों में होती है। अफसोस कि खेती परिणामभोक्ता नेता नहीं नागरिक होते हैं। जो नुकसान उठाने में दक्ष हो गये हैं। नेता जी खेती करें या धंधा उनके दोनों हाथों में काजू कतली होती है। लड्डू अब ओल्ड फैशन हो गये हैं। बेचारी जनता तो तुलसी बाबा के आदर्शों पर चल कर मन मसोस कर कराहती है-” हानि लाभ जीवन मरण जस अपजस विधि हाथ।” दूरदर्शी थे बाबा जी! जानते थे कि लोकतांत्रिक भारत में विधि के विधाता ब्रह्मा नहीं ये नेता रहेंगे। नेता जी विधायिका शक्ति का प्रयोग कर ऐसी विधि की रचना करते हैं असुरों की पौ बारह हो जाती है और बेचारे भक्त अवतार के अवतरण में चतुर्थी- अष्टमी-नवमी की तिथियों पर त्यौहार का प्रसाद खाते रह जाते हैं।
कभी-कभी मेरा मन भी इस राष्ट्रीय रोजगार को अपनाने को करता है। पर आत्मा नाम का कीटाणु तुरंत चिमटी काटता है कि मास्टर है, मास्टर रह। मैं लल्लू-मुल्लू जैसे शिक्षकों के सफल नेता होने का प्रमाण देता हूँ तो वह कहता है कि उसके लिए नेतागिरि की खेती या धंधे की नहीं गुंडागर्दी की है। तू ठहरा बच्चों को देशभक्ति और मानवता की घुट्टी पिलानेवाला। नकल करनेवाले मासूम बच्चे को थप्पड़ मारने में भी अपनी शान समझता है। अपनी क्लास-रूपी बगिया में क्या इन खरपतवारों को पनपने देगा? मैं बच्चों को कभी निराश न होने के सूत्र रटाता हूँ। लेकिन यह प्रश्न मुझे तोड़कर रख देता है कि चुनाव प्रधान भारत सच में कब नागरिक प्रधान भारत कहलाएगा? चुनावों के मौसम में जनता अपेक्षा करती है कि अब की बार खेती होगी लेकिन धंधा होता है। उत्पादन में नेताओं के टिड्डी दल निकलते हैं और धंधे में मैंने कहा ना नुकसान उठाना पड़ता है। ये टिड्डी दल पूरे देश की फसल को बर्बाद कर देता है। फिर जनता अगली फसल की तैयारी कर देती है यह सोचकर कि देश को नेता चाहिए क्योंकि हम नेता के बिना जी नहीं सकते।

— शरद सुनेरी