लघुकथा

पॉकेट मनी

बरसों के बाद आज मनकू की पॉकेट मनी से भरी थी.
बचपन में उसका नाम मनकू रखा गया था, पर उसके पास मनके तो क्या पॉकेट मनी के नाम पर रुपये-पैसे भी नहीं होते थे.
न समय एक-सा रहता है, न जिंदगी. जिंदगी ने मोड़ लिया, उसके पापा की मोटी लॉटरी निकली और मनकू मणियों से सज गया था.
सरकारी स्कूल में टाटपट्टी पर बैठकर पढ़ाई करने वाला मनकू अंग्रेजी स्कूल में साहब बनने की तैयारी में लगा था कि जिंदगी ने एक और मोड़ लिया. पापा के देनदार मुकर गए, जबरदस्त घाटा हो गया, मनकू का अंग्रेजी स्कूल से टाटा हो गया. फलक से पटरी पर आ गया.
शायद सड़क भी इतने मोड़ नहीं लेती होगी, जितने मोड़ उसकी जिंदगी ने लिए. मोड़ का आग़ाज़ अब भी घुमावदार था, पर अंजाम सीधा-संवरा निकला.
सालों से भाई दूज के दिन तिलक लेकर भाई को ढूंढने निकलती थी, पर वो कहीं होता तो मिलता न! आज उसे मनकू में अपने भाई की झलक दिखाई दी. उसने मनकू को तिलक किया, मिठाई के लिए पैसे दिए और रिटर्न गिफ्ट कहिए या उपहार में उसको ही मांग लिया.
बड़ी बहिन के साथ मनकू फिर अंग्रेजी स्कूल में पहुंच गया था, खाने-पहनने के लाले विदा हो गए. अब उसका नाम मणिलाल हो गया था, मणि की अंगूठी उसके हाथ को सुशोभित कर रही थी. पॉकेट मनी अब उसकी सखी बन गई थी.

— लीला तिवानी

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244