मुझमे ही निहित हो प्रियवर
नीरव मन में उद्वेलित कुछ वह लम्हें,
खुलने को आतुर अधखुली सी गिरहें,
कुसुमित स्मित मृदु प्रणय के वह पल
दृग पुलिनों में तैरती वो सुहानी सुबहे।
सिमटी सहमी हुयी सी संपूर्ण रमनी
धवल चांदनी बिखेरती हुयी यामिनी,
वह आहट फिर बढ़ जाना धड़कन
लाजवंती सी सिकुड़ती गई कामिनी।
कमनीय काया तो हो गई थी कंचन,
सुधि में मेरे है बसे सारे बीते वह क्षण,
उफ्फ गूंजती हुयी तोप और अमर रहे नारे,
दशक तो हो गये जब टूटे हमारे गठबंधन।
दिए थे तुमने मुझे जितने भी रंगीन बसंत,
अमूल्य धरोहर है जीवन की वह मेरे कंत,
स्पंदन, सिहरन, सब जिएगी तेरी बिरहन,
वह सब पल ही तो है मेरे जीवन के पंत।
— सविता सिंह मीरा