विवेकानन्द के दृष्टिकोण में धर्म
स्वामी विवेकानन्द को हिन्दू संन्यासी कहना एकदम गलत होगा। वे संन्यासी तो थे, किन्तु हिंदू संन्यासी थे, यह सही नहीं है। उन्हें हिन्दू धर्म तक सीमित करना किसी भी प्रकार से उचित नहीं कहा जा सकता। उन्होंने भारत में जन्म लिया। साधना की, देश के लिए अपना आध्यात्मिक जीवन भी समर्पित कर दिया। उसके बावजूद, वे विश्व की थाती थे। उन्हें हम भारतीय भी, शिकागो भाषण के बाद ही जाने। उससे पूर्व भारत में भी उनको विशेष महत्व नहीं दिया गया। स्वामी विवेकानन्द के बारे में कोई भी धारणा बनाने से पूर्व, आइए हम उनके संबन्ध में कुछ आधारभूत तथ्यों की चर्चा कर लें।
स्वामी जी का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता में हुआ। उनका प्रारंभिक नाम नरेंन्द्र नाथ दत्त था। कहा जाता है कि प्रारंभ में वे नास्तिक विचारों के थे और ईश्वर की धारणा पर विश्वास नहीं करते थे। वे मिलने वाले व्यक्तियों से एक ही प्रश्न करते थे, ‘क्या आपने ईश्वर को देखा है?’ उनके इस प्रश्न का उत्तर कोई नहीं दे पाता था। इसी प्रश्न को उन्होंने श्री रामकृष्ण परमहंस के समक्ष भी रखा। श्री रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें अप्रत्याशित उत्तर दिया, ‘जी हाँ! मैंने ईश्वर को देखा है। ठीक उसी तरह जिस तरह तुम्हें देख रहा हूँ। यही नहीं मैं तुम्हें भी ईश्वर को दिखा सकता हूँ।’ इसी सकारात्मक उत्तर ने विवेकानन्द को उनके सम्पर्क में रहने के लिए प्रेरित किया। कालान्तर में वे श्री रामकृष्ण परमहंस के शिष्य बन गए। उल्लेखनीय है कि श्री रामकृष्ण परमहंस काली मंदिर में काली के पुजारी थे और इस प्रकार वे मूर्तिपूजक थे।
धर्म से पहले रोटी
स्वामी विवेकानन्द ने अन्ततः वेदान्त का प्रचार-प्रसार किया। स्वामी जी का वेदान्त विश्व के समस्त धर्मो को अपने आप में समाहित करता था। स्वामी जी ने हिन्दू धर्म के बारे में कहा था कि इसका असली संदेश लोगों को अलग-अलग संप्रदायों में बाँटना नहीं, वरन पूरी मानवता को एक सूत्र में पिरोना है। उनके अनुसार व्यक्ति को मानव में ही ईश्वर को पहचानना चाहिए। उनके अनुसार मानव को धर्म से पहले रोटी की आवश्यकता है। उनके अनुसार जिस प्रकार समस्त नदियाँ सागर में जाकर मिलती हैं, उसी प्रकार मानव के कर्म उसे ईश्वर की ओर ही ले जाते हैं। स्वामी जी के अनुसार समग्र प्रकृति ही ईश्वर की उपासना स्वरूप है। उनके अनुसार जो कुछ शान्त है, वह जड़ है। चैतन्य ही केवल अनन्त स्वरूप है, ईश्वर चैतन्यस्वरूप है। इसलिए वह अनन्त है। मानव चैतन्यस्वरूप है। अतः मानव भी अनन्त है और अनन्त ही अनन्त की उपासना में समर्थ है। हम उसी अनन्त की उपासना करेंगे, यही सर्वोच्च आध्यात्मिक उपासना है। इस प्रकार स्वामी जी ने नर सेवा को ही नारायण सेवा के रूप में स्वीकार किया। उनका कहना था कि हमारे दुःख के लिए हमारे सिवा और कोई उत्तरदाई नहीं है। वे आत्मजागरूकता के पक्षधर थे।
रामकृष्ण मठ, नागपुर द्वारा स्वामी विवेकानन्द के विचारों पर आधारित प्रकाशित पुस्तक ‘धर्महरहस्य’ में स्वामी जी के सन्दर्भ में विश्व के सभी प्रमुख धर्मो पर चर्चा की गई है। धर्मो की एकपक्षीय धारणा को स्पष्ट करने के लिए हिब्रू शास्त्र के हवाले से कहा गया है कि तुम्हारा प्रभु ईर्ष्यापरायण ईश्वर है-तुम दूसरे किसी ईश्वर की उपासना नहीं कर पाओगे। इसी प्रकार का विचार इस्लाम में भी है कि अल्लाह के सिवा किसी को स्वीकार मत करो। उसके सिवा किसी के सामने न झुको। विश्व के अधिकांश धर्म केवल अपनी विचारधारा को ही महत्व देते हैं, दूसरी को निकृष्ट समझते हैं। स्वामी जी ने सभी विचारधाराओं को स्वीकार किया। वे किसी भी विचारधारा का वर्जन नहीं करते। वे वर्जन में नहीं, स्वीकृति में विश्वास करते हैं।
धर्म की प्रेरणा-
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, ‘किसी धर्म का उद्देष्य जितना उच्चतर है, उसकी कार्यप्रणाली जितनी सूक्ष्म है, उसकी क्रियाशीलता भी उतनी ही अद्भुत होती है। धर्म प्रेरणा से मनुष्यों ने संसार में जितनी खून की नदियाँ बहायी हैं, मनुष्य के हृदय की और किसी प्रेरणा ने वैसा नहीं किया। और धर्म प्रेरणा से जितने चिकित्सालय, धर्मशाला, अन्न-क्षेत्र आदि बनाये, उतने और किसी प्रेरणा से नहीं। संसार में धर्म को सबसे अधिक महत्व दिया जाता रहा है। अधर्म भी धर्म के नाम पर ही किया जाता रहा है। धर्म शब्द का प्रयोग बहुअर्थी किया जाता है। कर्तव्य को भी धर्म के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। विभिन्न व्यक्तियों के विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न पक्षों के प्रति अलग-अलग धर्म होता है। अतः देखा यह जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने अलग धर्म की बात करता है। कई बार तो अलग-अलग व्यक्ति के धर्म में टकराव देखने को मिलता है। स्वामी जी सभी धर्मो में एकत्व की चर्चा करते हैं। स्वामी जी बहुत्व में एकत्व को प्रमुखता से देखते हैं।
समन्वयकर्ता के रूप में स्वामी जी
स्वामी जी के अनुसार धर्म जीवन में परिणत करने की वस्तु है। धर्म आचरण में उतारने की अवधारणा है। बहुत्व के बीच एकत्व का होना सृष्टि का नियम है। विभिन्न धार्मिक विचारों में भी धर्म की मूलभूत अवधारणा मानव का विकास है। वैषम्य की नैसर्गिक अनिवार्यता को स्वीकार करते हुए हम सब स्वाभाविक रूप से एकत्व को स्वीकार करते ही हैं। समस्या यह है कि हम वैषम्य या विविधता की बात तो करते हैं, उसे स्वीकार नहीं कर पाते। वैषम्य को स्वीकार करके ही हम एकत्व पर पहँुच सकते हैं। विभिन्न संप्रदायों व धर्मो को स्वीकार करके ही धर्म के सार को पाया जा सकता है। सभी विचारधाराएँ महात्मा बुद्ध के मूल विचार लोगों के दुखों को दूर करना, को स्वीकार करती हैं। यह सभी को स्वीकार करके ही किया जा सकता है, किसी का निरादर करके नहीं। स्वामी जी के शब्दों में, ‘यदि सहायता न कर सको, तो अनिष्ट मत करो। जब तक मनुष्य कपटहीन रहे, तब तक उसके विश्वास के विरूद्ध एक भी शब्द न कहो। दूसरी बात यह है कि जो जहाँ पर है, उसको वहीं से ऊपर उठाने की चेष्टा करो।’
स्वामी जी कहते हैं, ‘चारों ओर समभाव से विकास लाभ करना ही मेरे कहे हुए धर्म का आदर्श है। भारतवर्ष में जिसको योग कहते हैं, उसी के द्वारा आदर्श धर्म को प्राप्त किया जा सकता है। कर्मी के लिए यह मनुष्य के साथ मनुष्य जाति का योग है, योगी के लिए निम्न तथा उच्च अहं का योग, भक्त के लिए अपने साथ प्रेममय भगवान का योग और ज्ञानी के लिए बहुत्व के बीच एकत्वानुभूतिरूप योग है। योग शब्द से यही अर्थ निकलता है। यह एक संस्कृत शब्द है और चार प्रकार के इस योग के संस्कृत में भिन्न-भिन्न नाम हैं। जो इस प्रकार का योग-साधन करना चाहते हैं, वे योगी हैं। जो कर्म के माध्यम से इस योग का साधन करते हैं, उन्हें कर्मयोगी कहते हैं। जो भगवद्प्रेम द्वारा योग का साधन करते हैं, उन्हें भक्तियोगी कहते हैं। जो (पातंजल आदि) योगमार्ग के द्वारा इस योग का साधन करते हैं, उन्हें राजयोगी कहते हैं और जो ज्ञान विचार द्वारा इस योग का साधन करते हैं, उन्हें ज्ञानयोगी कहते हैं। अतएव यह योगी शब्द इन सभी को समाविष्ट करता है।’
शिक्षा और ज्ञान पर स्वामी जी के विचार
स्वामी जी आत्म जागरूकता पर जोर देते हैं। उनके अनुसार ज्ञान हमारे ही अंदर है। हमें उसका उद्घाटन करना है। स्वामी जी कहते हैं कि यह स्वीकार करो कि तुम्हारी आत्मा को छोड़ तुम्हारा और कोई शिक्षक नहीं है। न कोई तुम्हें शिक्षा दे सकता है और न कोई तुम्हारी आध्यात्मिक उन्नति कर सकता है। तुमको स्वयं ही शिक्षा लेनी होगी-तुम्हारी उन्नति तुम्हारे भीतर से ही होगी। यही धर्म के बारे में कहा जा सकता है।
स्वामी जी के अनुसार सहज ज्ञान, विचार-शक्ति और अतीन्द्रियबोध, ये तीनों ही ज्ञान लाभ के साधन हैं। पशुओं में सहज ज्ञान, मनुष्य में विचार शक्ति और देव मानव में अतीन्द्रियबोध दिखाई पड़ता है। परन्तु सभी मनुष्यों में इन तीनों साधनों का बीज थोड़ा बहुत परिस्फुटित दिखाई पड़ता है। इन सब मानसिक शक्तियों का विकास होने के लिए उनके बीजों का भी मन में विद्यमान रहना आवश्यक है और यह भी स्मरण रखना कर्तव्य है कि एक शक्ति दूसरी शक्ति की विकसित अवस्था ही है, इसलिए वे परस्पर-विरोधी नहीं है।
कर्म के लिए कर्म(Duty for duty’s sake)
हम सभी लोगों के ज्ञान लाभ के लिए एकमात्र उपाय है-‘एकाग्रता’। निम्नतम मनुष्य से लेकर सर्वोच्च योगी तक को एकाग्रता का ही अवलंबन लेना पड़ता है। ज्ञान लाभ के लिए एक मात्र उपाय एकाग्रता ही है। यह एकाग्रता वास्तव में कहने में जितनी सरल है, प्राप्त करना अत्यत्न कठिन है। स्वामी जी के अनुसार, ‘जब कभी मैं व्यर्थ की सब चिंताओं को छोड़कर ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से मन को स्थिर करने की चेष्टा करता हूँ, तब न जाने कहाँ से मस्तिष्क में हजारों बाधाएँ आ जाती हैं। हजारों चिन्ताएँ मन में एकसंग आकर उसको चंचल कर देती हैं। किस प्रकार से इन सब का निवारण कर मन को वशीभूत किया जाय, यही राजयोग का एकमात्र आलोच्य विषय है। जब कर्मयोग की बात की जाती है तो किसकी सहायता की जा रही है अथवा किस कारण से सहायता की जा रही है, आदि विषयों पर ध्यान न रखते हुए, अनासक्त भाव से केवल कर्म के लिए कर्म करना चाहिए – कर्मयोग यही शिक्षा देता है। पाष्चात्य दार्शनिक काण्ट भी कर्म के लिए कर्म(Duty for duty’s sake) के सिद्धान्त की बात करते हैं। गीता में निष्काम कर्म की अवधारणा भी यही कहती है। इस प्रकार बहुत्व में एकत्व पाया जाता है।
प्रेम के लिए प्रेम
भक्तियोग उनको निस्वार्थ भाव से प्रेम करने की शिक्षा देता है। कोई गूढ़ अभिसन्धि न रहे। लोकैषणा, पुत्रैषणा, वित्तैषणा कोई भी इच्छा न रहे। केवल भगवान से अथवा जो कुछ मंगलमय है, उसी से केवल प्रेम के लिए प्रेम करना, प्रेम ही प्रेम का श्रेष्ठ प्रतिदान है और भगवान ही प्रेमस्वरूप हैं – यही भक्तियोग की शिक्षा है। जब हम ज्ञानयोग की बात करते हैं, तब संपूर्ण समष्टि ही ईष्वर रूप दिखलाई पड़ती है। ‘‘तुम ही ईश्वर हो, तत्वमसि’’। ज्ञानयोग हमको यही शिक्षा देता है। वह मनुष्य को प्राणिजगत के बीच यथार्थ एकत्व दिखा देता है – हममें से प्रत्येक के भीतर से प्रभु ही इस जगत में प्रकाशित हो रहे हैं। अत्यन्त सामान्य पददलित कीट से लेकर जिनको हम सविस्मय हृदय की श्रद्धा-भक्ति अर्पण करते हैं, उन श्रेष्ठ जीवों तक सभी उस एकमात्र भगवान के प्रकाश हैं।
अन्त में महत्वपूर्ण यह है कि कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग या राजयोग जो भी हो प्रत्येक को हमें कार्य मेें परिणत करना ही होगा, ‘श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः।’ श्रवण, मनन व आचरण के बिना कोई मार्ग सिद्ध नहीं हो सकता। मन-वचन-कर्म की एकता ही सत्य कही जा सकती है। विविधता में एकता धर्म के मूल में निहित है। भ्रमात्मक बुद्धि से आज हम अनेक मूर्खताओं को सत्य ग्रहण करके कल ही शायद सम्पूर्ण मत परिवर्तित कर सकते हैं, किन्तु यथार्थ धर्म कभी परिवर्तित नहीं होता। धर्म अनुभूति की वस्तु है- वह मुख की बात, मतवाद अथवा युक्तिमूलक कल्पनामात्र नहीं है-चाहे वह कितनी भी सुन्दर हो। आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, तद्रूप हो जाना-उसका साक्षात्कार करना, यही धर्म है- यह केवल सुनने या मान लेनी चीज नहीं है। मन, वाणी और कर्म एक हो जाएं, यह धर्म है। समस्त मन-प्राण विश्वास की वस्तु के साथ एक हो जाय। यह धर्म है।
स्वामी जी विभिन्न धर्मो, जिन्हें संप्रदाय कहना अधिक उपयुक्त होगा; के मूल तत्वों को स्वीकार करते हुए सबका सम्मान करते हैं। वे सहिष्णु नहीं, स्वीकार करने की बात करते हैं। धर्म तो वे मूल तत्व हैं जिन पर विवाद संभव नहीं हैं। स्वामी जी सभी को स्वीकार करने की बात करते हैं। स्वामी जी जिस वेदांत की बात करते हैं, वह निराकार ब्रह्म को मानता है। उसके बावजूद स्वामी जी तो मूर्तिपूजकों की भी निन्दा नहीं करते। उसे भी निकृष्ट कोटि की भक्ति बताकर स्वीकार करते हैं। स्वामी जी ईसा की भी अच्छी बातों की प्रशंसा करते हैं, तो महात्मा बुद्ध के भी अनुयायी दिखाई देते हैं। स्वामी जी धर्म के जिस रूप की बात करते हैं, वह किसी भी प्रकार से विवाद की विषयवस्तु नहीं हो सकता। स्वामी जी नर सेवा-नारायण सेवा के सूत्र द्वारा मनुष्य मात्र को ईश्वर से जोड़ देते हैं। उनके लिए आत्मा ही परमात्मा है। वह आत्मा भले ही कितने भी लघु कीट की ही क्यों न हो। चेतना का कोई भी स्तर हो, वह ईश्वर का ही अंश है। स्वामी विवेकानन्द और स्वामी दयानन्द दोनों की ही बात साथ-साथ करें तो अधिक अन्तर नहीं है। धर्म और ईश्वर के बारे में दोनों की अवधारणाओं में ही अन्तर नहीं है। दोनों ही मानवता के पुजारी है। स्वामी दयानन्द अपने को जहर देने वाले को भी माफ करते हुए दया को कर्म रूप में अर्थात आचरण में लाते हुए हमें प्रेरणा देते हैं। वेदों पर दोनों के विचार में भी समानता ही है। अन्तर है तो केवल इतना स्वामी दयानन्द वर्जना और आलोचना पर मुखर रहते हैं तो स्वामी विवेकानन्द वर्जना और आलोचना को छोड़कर स्वीकृति और समन्वय के द्वारा धर्म को विस्तार देने में जीवन लगा देते हैं। स्वामी विवेकानन्द के द्वारा धर्म को जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है। वह सर्वस्वीकृत है। न तो विवेकानन्द किसी का विरोध करते हैं और न ही विश्व का कोई धार्मिक व्यक्ति विवेकानन्द का विरोध करता है। स्वामी विवेकानन्द को धर्मो का समन्वयकर्ता कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।