लघुकथा

दुर्दशा 

        “बेटा, तुम परदेश में अपना ख्याल रखना, हम गाँव में किसी तरह जी लेंगे।” बाहर जा रहे अपने बेटे से माँ ने समझाते हुए कहा।

        “मांँ, हम मिट्टी और गांँव से पलायन कर रहे हैं तो क्या, रिश्ते नहीं तोड़ हैं, तुम हमें आँसू देकर मत विदा करो।” रमेश ने अपनी मांँ को सांत्वना देते हुए कहा।

        “तुम एम.ए. पास है, सरकार चाहती तो तुम्हारी बेरोजगारी इसी राज्य में दूर हो सकती थी, लेकिन ,,,, लेकिन पेट की आग से निपटने के लिए  पलायन सिवा दूसरी कोई राह नहीं बची है, जाओ मेरे लाल जाओ।” कहते-कहते मांँ फफक पड़ी। मांँ के बहे आंँसू से मिट्टी गीली हो गई थी।

— विद्या शंकर विद्यार्थी 

विद्या शंकर विद्यार्थी

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