कविता
धरती में दबा बीज
उगा देता है पौधा।
लहलहाती हैं फसलें
दूध में आते दाने
मुलायम
बेहद मुलायम
सतरंगी आभा लिए ।
जीवन संगीत सा
बजने लगता है उन दिनों।
कितने सुहाने लगते हैं
पोढ़े हो चुके दाने
बेहद मजबूत
पक कर झरते हुए दाने।
भर देते हैं
खेत और खलिहान
पैदा होता है अन्न।
कर देता है प्राणप्रतिष्ठा
प्रतिष्ठित है हमारा जीवन
इसी अन्न जल में।
इंतजार है
अन्नदाता को
प्रतिष्ठित होने के लिए
जुटा है वह
प्रतिष्ठा के लिए
जीवन की, प्राणों की।
बलिहारी हो जाना चाहता है
समय
हमारी, इनकी – उनकी
इच्छा पर
सदा के लिए
सदैव के लिए।
— वाई. वेद प्रकाश