कविता

मोहब्बत

मोहब्बत जान से न थी,
मोहब्बत तन से भी ना की ।
मोहब्बत सरजमी से थी
तो उस पर जाँ कुरबाँ कर दी ।।

मैं हूँ एक शहीद सिपाही ,
वतन की रक्षा था मेरा धर्म ।
आतंकवादी दुश्मन से लड़ना,
उन्हें , मारना था मेरा कर्म ।।

नहीं की मोहब्बत मैंने कभी,
किसी कमनीय काया से ।
नहीं सोचा कभी मैंने कि,
क्या भोजन में खाया है ?

मेरा महबूब, मेरा देश ,
जिसको मैंने सिर नवाया है ।
मेरी महबूबा, उसकी मिट्टी
जिसमें खुद को मिलाया है ।।

भले ही मर गया हूँ मैं ,
मोहब्बत जिंदा है लेकिन।
अब हर एक सिपाही में,
जीवित मेरा ही साया है ll

— बृज बाला दौलतानी