पर्यावरण

बढ़ता मृदा प्रदूषण, घटता उत्पादन

मिट्टी के ऊपर भुरभुरा और स्नेहिल तत्त्व बीजों को अंकुरित कर और जड़ों को धारण कर हमारी धरती पर जीवन सुनिश्चित करता है। यह आज के दौर में आठ अरब लोगों के लिए खाद्य उपलब्धता सुनिश्चित के करने, बिगड़ते पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन और जलवायु संकट को काफी हद तक कम करने का मजबूत संबल है। मगर आज प्राणियों के लिए पोषक मिट्टी का अस्तित्व खुद गंभीर संकट में घिरा है। मिट्टी का बड़े पैमाने पर क्षरण न केवल कृषि पैदावार और खाद्य सुरक्षा को प्रभावित कर रहा है, बल्कि जलवायु परिवर्तन की समस्या को और अधिक व्यापक तथा जटिल बना रहा है। मिट्टी के क्षरण के साथ उसकी उत्पादकता की कमी धीरे-धीरे बढ़ रही है, प्रदूषण के इतर इसका दायरा आधुनिक कृषि तरीकों के कारण दबे पांव फैल रहा है।

मिट्टी की गुणवत्ता में कमी, जमा होता नमक और जहरीले रसायनों के संदूषण और फसल उत्पादन में आ रही कमी मृदा क्षरण के दायरे आते हैं। मृदा क्षरण आमतौर पर मौजूदा रसायनों (जिसमें खाद और जहरीले कीटनाशक शामिल हैं) के अंधाधुंध इस्तेमाल, भूमि के परंपरागत उपयोग में व्यापक बदलाव, जंगल की कटाई, बाढ़, सुखाड़, जलजमाव और जलवायु परिवर्तन से । तापमान आदि कारणों से पैदा होता है। भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहां खेती-किसानी आज भी अधिकांश लोगों के लिए जीविका का स्रोत है, दस लाख 78 हजार वर्ग किलोमीटर दायरे में फैले विश्व के दूसरे सबसे बड़े कृषि तंत्र की रीढ़ मिट्टी ही है। मृदा क्षरण का गहराता संकट न सिर्फ पैदावार को प्रभावित कर रहा है, बल्कि जलवायु परिवर्तन के दौर में यह अनेक समस्याओं का कारण बन रहा है, जिनमें मुख्य रूप से पारिस्थितिकी असंतुलन भी शामिल है। मिट्टी सर्वेक्षण के राष्ट्रीय ब्यूरो के मुताबिक भारत में लगभग एक तिहाई मिट्टी के यानी लगभग 12 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र मृदा क्षरण के दायरे में है, जिसका अच्छा-खासा हिस्सा समुद्र के लवणीकरण से प्रभावित है।

बड़े पैमाने पर मृदा क्षरण के बावजूद, तकनीक आधारित गहन कृषि कारण पैदावार में वृद्धि हुई और अब भारत कृषि उपज का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। वह खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भर है। मगर बाढ़ के दौरान और निर्माण कार्य के लिए बड़े पैमाने पर मिट्टी के कटाव, रासायनिक खाद के व्यापक इस्तेमाल से जमा होती लवणता, बढ़ती अम्लीयता और जलभराव आदि से कृषि योग्य भूमि का एक बड़ा भाग ऊसर होता जा रहा है। अगर इसी तरह मृदा क्षरण जारी रहा तो आने वाले वर्षों में खाद्य आयात करना पड़ सकता है, जबकि भारत, दुनिया के केवल 2.4 फीसद भूमि क्षेत्र के साथ, विश्व की 18 फीसद आबादी को खिलाने में सक्षम है।

मृदा क्षरण के प्रमुख कारणों में अमर्यादित तरीके से खेती के अलावा बड़े पैमाने पर शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के लिए भूमि उपयोग में व्यापक बदलाव भी जिम्मेदार है। इसके साथ-साथ भारत मवेशियों की संख्या के लिहाज से भी सबसे बड़ा देश है। इनके चरने के दौरान जमीन की ऊपरी वनस्पति हटने से मिट्टी की ऊपरी परत कमजोर हो जाती है और यह वर्षा और हवा के कारण कटाव का शिकार हो जाती है। भारत जनसंख्या के लिहाज से विश्व का सबसे बड़ा देश है और डेढ़ अरब लोगों का पेट भरने के लिए जरूरी अनाज उत्पादन का दबाव कृषि पर लगातार बना हुआ है। साथ ही उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा रखरखाव और अक्षम प्रबंधन के कारण बर्बाद हो जाता है। इन सबका असर अंततः मिट्टी पर पड़ता है।

आजादी के बाद अनाज की बढ़ती जरूरत और खाद्यान्न के लिए विदेशों पर निर्भरता को ध्यान में रखते हुए हरित क्रांति का प्रकल्प लागू हुआ, जो मुख्य रूप से कृत्रिम सिंचाई, रासायनिक उर्वरक कीटनाशक और संकर बीज पर आधारित था, जिसका मुख्य लक्ष्य था ज्यादा से ज्यादा अनाज का उत्पादन इस प्रयास में मिट्टी की उर्वरता नेपथ्य में चली गई। लगातार एक ही तरह की फसल उगा कर ज्यादा से ज्यादा अनाज पैदा किया जाने लगा, जिससे मिट्टी में मौजूद प्राकृतिक पोषक तत्त्व कम होने लगे। इसकी उर्वरता को बनाए रखने के लिए रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध उपयोग से मिट्टी में उपस्थित सूक्ष्मजीव और जैविक पदार्थ खत्म होते चले गए। वर्तमान में कृषि कार्य में 94 फीसद तक रसायनिक उर्वरक का उपयोग होता है। यहां तक कि रासायनिक कीटनाशकों और उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग से हमारे खेतों और फसलों को जहरीला बना दिया। हरित क्रांति के दौरान हमारा अनाज उत्पादन पांच करोड़ टन से बढ़ कर तीस करोड़ टन पहुंच गया, पर यह उपलब्धि उपजाऊ मिट्टी की कीमत पर हासिल की गई प्रतीत होती है। ऐसे में मिट्टी का तेज गति से क्षरण भारत की बढ़ती जनसंख्या के लिए खाद्य सुरक्षा के गंभीर संकट का कारण बन सकता है। मृदा क्षरण के कारण न सिर्फ उत्पादकता में कमी आती है, बल्कि इसमें प्राकृतिक रूप से मौजूद कार्बन की मात्रा कम हो जाने से इसकी पानी सोखने और जकड़ कर रखने की क्षमता भी काफी हद तक घट जाती है। नतीजा यह कि पानी के स्रोतों से जल का पुनर्भरण काफी कम हो जाता है, जो भारत में बड़े स्तर के भूजल स्तर में गिरावट और सूखे की बढ़ रही समस्या के रूप में परिलक्षित हो रहा है। हरियाणा और पंजाब, जो भारत के सबसे अधिक अनाज उत्पादक हैं, वहां जल स्तर खरतनाक रूप से गिर चुका है। । समृद्ध और उपजाऊ मिट्टी कृषि प्रधान भारत के लिए वैश्विक आर्थिक उतार-चढ़ाव से सुरक्षित रखती है। तभी तो पिछले कुछ दशक में आई बड़े स्तर की वैश्विक मंदी में भी भारतीय अर्थव्यस्था मामूली असर के साथ तेजी से आगे बढ़ती रही।

उर्वर मिट्टी आज के दौर में भारत जैसे देश के लिए न सिर्फ पेट भरने किए जरूरी, बल्कि अर्थव्यवस्था की धुरी है। ऐसे में जरूरत है कि मिट्टी की उर्वरता को प्राकृतिक तरीके से वापस लाया जाए। इसके लिए हमें मिट्टी के भौतिक, रासायनिक और जैविक स्वास्थ्य को बहाल करने की आवश्यकता होगी, जो एक लंबी और जटिल, पर संभव प्रक्रिया है। अपने जैविक तत्त्व यानी कार्बन को खोकर ऊसर हो चुकी मिट्टी में दोबारा जैविकता लौटाने की जरूरत होगी। अभी कुल इस्तेमाल हो रहे उर्वरकों में केवल छह फीसद जैविक स्रोत वाले उर्वरक का इस्तेमाल हो है। जरूरत । है कि रासायनिक खाद पर निर्भरता कम कर जैविक खाद आधारित खेती-किसानी को प्रोत्साहन मिले। हालांकि इससे खाद्यान्न उत्पादन में कमी की आशंका शामिल है।

भारत में | प्रकृति केंद्रित समृद्ध कृषि परंपरा रही है, जो मिट्टी की क्षमता, मौसम और पानी की उपलब्धता के सामंजस्य पर आधारित है। इसे पुनर्जीवित किया जाना चाहिए। दबे पांव मिट्टी पानी का संकट हमारे खेतों से होते हुए हमारी थाली तक आ पहुंचा है। ऐसे में इस भीषण समस्या का संज्ञान लेने और सरकार, समाज तथा व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास करने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है।

— विजय गर्ग

विजय गर्ग

शैक्षिक स्तंभकार, मलोट