सामाजिक

भौतिकता की चकाचौंध में हम कहाँ?

तृष्णा की आग लगी है तो तपन रहेगी ही रहेगी । वह ढ़लान की दिशा मे जल की धार बहेगी ही बहेगी । अतः जरूरी है परिमाण के कारण का सही से निराकरण अगर नींव कमजोर है तो दिवार ढ़हेगी ही। यहाँ जो लखपति है उसे आगे करोडपति बनना है और जो करोडपति है उसको आगे अरबपति बनना है आदि – आदि | आदमी जिंदगी भर दौड़-दौड़ कर धन को जोड़ता है । आदमी कमाने के चक्कर मे धर्म से मुख मोड़ता है । अब वो कैसे हाँ कहे पैसे के पीछे भागते भागते हुए सब कुछ पाने की ख्वाईश में वो जिसके लिये सब कुछ कर रहा है वह ही रह गया है ।वह जिंदगी भर पापों का collection करता है , उसका reaction बाद में होता है । इच्छाओं का मकडजाल के घेरे में जब घुसते हैं तो उससे निकलने के लिए फिर कहीं मार्ग नहीं है। इच्छायें फिर ऐसा ताना बाना बुनती है कि उसका फिर समुद्र के दो किनारों की तरह कोई ओर छोर नहीं है । इन्सान की इच्छापूर्ति कभी पूरी नहीं होती है । एक पूरी हो भी जाये तो दुगुनी इच्छा मुँह बायें सामने खड़ी रहती है। हम तभी तो कहते हैं कि इच्छाओं का आसमान अन्तहीन है। मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी धन के प्रति उसका आकर्षण है । इंसान चाहे छोटा हो या बड़ा,धन के मोह में ऐसा फँसता है कि उससे दूर होना जैसे एक शराबी को शराब से दूर करना है । हम देखते है कि जिसके पास कल तक कुछ नहीं था,उसके पास आज बहुत कुछ है।यह धन जैसे-जैसे बढ़ता है वैसे-वैसे धन की तृष्णा के चक्रव्यूह में वह ऐसे फँसता है जैसे अभिमन्यु।उस चक्रव्यूह में घुसना तो आसान है पर बाहर आना बहुत मुश्किल है । हर व्यक्ति जानता है कि अंत समय में एक पाई भी यंहा से लेकर नहीं जायेंगे पर धन की तृष्णा का आवरण आँखों के आगे ऐसा आता है कि वो इंसान धन का सही उपयोग करना तो भूलता ही है और साथ में धार्मिक क्रियाओं से भी दूर हो जाता है।तभी तो कहते है कि इंसान नीचे बैठे दौलत गिनता है और कर्मदेव उसके दिन गिनता है । हमको इस भौतिकता की चकाचौंध ने अंधा बना दिया है जो वजूद संस्कार का था उसे बेगाना बना दिया है । हमारा जो कभी था ही नही अपना,उसे सबसे अच्छा प्रिय बना दिया है। ये पदार्थ सुख और पैसे की माया ने , अपना सब जगह आधिपत्य जमा लिया है । वह इस भौतिकता ने आदमी की परिभाषा, प्रगति , विकास , सामर्थ्य ,और अमीरी आदि – आदि को पहचान बना दिया है । कहते है कि और-और का जोड़ , इन्सान को तोड़ रहा है ।वह प्यास बुझ जाने पर भी प्यासा , पेट भर जाने के बाद भी थोड़े और की पिपासा रहती है ।यही तृष्णा इन्सान का सुख-चैन सारा छीन रही है , जितना जीना नहीं है, उससे भी अधिक वह मार रही है । हम वर्तमान भौतिकता की चकाचौंध में उस और निरन्तर अग्रसर ही है । हम आधुनिकता की अंधी दौड़ में, इंटरनेट के रंगीन सपनों में, माया के चक्कर में दिन-रात भाग रहे है । हम इस अंधी दौड़ में फंसकर इन मोह- माया के जाल में , सुख- शांति और संस्कृति का जीवन भूल गए हैं । मन की लोभी तृष्णा का कोई अंत नहीं होता है जैसे-जैसे सोचा हुआ हाशिल होता है वैसे-वैसे और नयी चाहत बढ़ने लगती है।वह जिसका जीवन में कभी अंत ही नहीं होता है ।
जीवन की इस आपा-धापी में जीवन के स्वर्णिम दिन कब बीत जाते हैं उसका हम्हें सही से भान भी नहीं रहता है । वह आगे जीवन में कभी सपने अधूरे रह गये तो किसी के मुँह से यही निकलता है कि कास अमुक काम मैं अमुक समय कर लेता। वह उनके लिये बस बचता है तो किसी के कास तो किसी के जीवन में अगर , व्यक्ति की इच्छा अनंत होती है उसके लिए वह सब कुछ करता भी है ,कभी सफलता मिलती है, कभी उसको नकारात्मकता , दोनों को सही से संतुलित करके ही हम जीवन का आनंद ले सकते हैं। आजकल प्रतिस्पर्धा का समय है ,उसमें उलझकर आजकल काफी जन अवसाद में चले जाते हैं। जरूरत है ठहराव, संतोष, आत्मसंयम व सकारात्मक सोच आदि – आदि की। अतः जैसे हमने कर्म किए हैं वो तो हमें भुगतने ही होंगे चाहे हंसते हुए या दुखी होते हुए तो क्यों न हम शांतिपूर्वक कर्म करते हुए जिए। हम ज्यादा कामनाओं से बचें क्योंकि जो होना होगा, वो होकर रहेगा। हमारा विकास व प्रगति का क्रम निरंतर चलता रहे रुकें नहीं, विकास की यात्रा में सिर उठा कर हमको चलना है वह कभी हमारा सिर झुके नहीं परन्तु आर्थार्जन व सत्ता की दौड़ में संतुष्टि का बड़ा महत्वपूर्ण अर्थ है क्योंकि हम भौतिकतावाद की इस दुनियाँ में इतने मशगूल हो गये है कि अर्थ की इस अंधी दौड़ में धन अर्जित तो खूब कर रहे हैं पर अपने सही संस्कार और आध्यात्मिक गतिविधियों से दूर जा रहे हैं।वह आज जिसे देखो वो एक दूसरे से आगे निकलने के चक्कर में आर्थिक तरक़्क़ी तो खूब कर रहा है पर धर्ममाचरण में पिछड़ रहा है। हम जब अतीत में देखते हैं तो अनुभव होता है कि हमारे पूर्वज बहुत संतोषी होते थे।वो धन उपार्जन के साथ अपना धर्म आचरण कभी नहीं भूलते थे।वह जब उनके अंदर सही से आध्यात्मिक और धार्मिक आचरण कूट-कूट कर भरे हुये होते थे तब वो ही संस्कार वो अपनी भावी पीढ़ी को देते थे।वह आर्थिक प्रतिस्पर्धा से कोसों दूर रहते थे।आज के समय चिंतन का मुख्य बिंदु यही दर्शाता है कि अगर होड़ लगाओगे तो दौड़ ही लगाओगे पर आध्यात्मिक और धार्मिक गुणों से विमुख हो जाओगे।अतः जीवन में दौड़ जरुर लगाओ पर साथ में आध्यात्मिकता और धार्मिकता भी जीवन में धारण करनी चाहिये। तृष्णा तो विश्व विजेता सिकंदर की कभी पूरी नहीं हुयी और जब विदा हुआ तो ख़ाली हाथ इसलिये कर्म ज़रूर करो और जो कुछ प्राप्त हुआ उसमें संतोष करना सीखो।जीवन की इस भागम-भाग में हमारी आख़िरी साँस कौन सी होगी वो कोई नहीं जानता है । भौतिकता में फँसना,बाहरी साधनों की कामना क्षणिक है । सुख और शांति ही सदैव स्थायी है वह बाहर नही अपितु अपने अंदर है। हम इंसान भी दुःख आता है तो अटक जाते है औऱ सुख आता है तो भटक जाते हैं। यहाँ संसार में बहुत सौदे होते हैं मगर सुख बेचने वाले और दुःख खरीदने वाले नहीं मिलतें है । अतः जिसने जीवन में संतोष करना सीख लिया उसका जीवन आनंदमय बन गया है । वह इसके विपरीत जीवन और और के चक्कर में न रह जाएगा और यूं ही बीत जाएगा क्योंकि जीवन के अंतिम पड़ाव में केवल अच्छे कर्म ही साथ में जाएंगे ।वह हमारे अच्छे कर्म ही हमारा संसार भ्रमण कम कराते है ।

— प्रदीप छाजेड़

प्रदीप छाजेड़

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