व्रत उपवास रीति रिवाज पूजा पाठ क्यूं महिलाओं के ही आस पास?
भारत एक धार्मिक देश है। यहां हर काम को धर्म से जोड़ा जाता है। धर्म एक आस्था का विषय है और यह आस्था बड़ी ही व्यक्तिगत होती है। हम क्या करेंगे तो क्या होगा इसका निर्धारण कोई और व्यक्ति हमारे लिए करता है तो यह बात पूर्ण रूपेण तार्किक नहीं प्रतीत होती है। ईश्वर के प्रति आस्था रखना। प्राणी मात्र के प्रति करुणा रखना ये अच्छी बात है। किंतु धर्मभीरू होना गलत है। अंध विश्वास रखना गलत है।
और हमारे देश में सहज रूप से देखा जाता है की स्त्रियां ज्यादा धार्मिक होती हैं। या धर्म भीरू होती हैं। धर्म के तथा कथित आडंबर और बाबाओ के प्रवचन भी ज्यादा कर वही सुनती हैं। व्रत उपवास रीति रिवाज भी वही मानती हैं।
कभी सोचा है कि क्यों? क्या कारण है? अक्सर लोग कहते हैं महिलाएं कम पढ़ी-लिखी होती हैं पुरुषों की तुलना में इसलिए वह यह सब करती है । किंतु हमने पढ़ी-लिखी आत्मनिर्भर ( तथाकथित आत्मनिर्भर) ऐसा मैं इसलिए लिख रही हूं की महिलाएं आत्मनिर्भर तो बहुत ही कम है। क्यों की अगर आप अपना निर्णय नहीं ले सकतीं हैं तो आप आत्मनिर्भर हो ही नहीं सकती। यहां मैं एक बात स्पष्ट कर दूं की धन कमाना आत्मनिर्भर होने का पैमाना नहीं है धन तो पशु भी कमा कर अपने स्वामी को दे देते हैं तो क्या वह आत्मनिर्भर है?
इसलिए अपने फैसले खुद ले। और अगर वह गलत होते हैं तो उनकी जिम्मेदारी भी स्वीकार करें । क्योंकि फैसले सही हो या गलत आप का फायदा ही होगा। या तो आपको सीख मिलेगी या तो सफलता। हर तरह से स्व निर्णय ही सबसे अच्छा होता है।
अब पुनः मूल प्रश्न पर आती हूं की आखिर ये दान पुण्य धर्म रीति रिवाज़ का ठेका औरतों ने ही क्यों ले कर रखा है।
कभी पुरुषों को नहीं देखा है मकर संक्रांति पर दान करते हुए , मौनी अमावस्या पर मौन स्नान करते हुए। अहोई अष्टमी पर पूजा करते हुए। श्राद्ध पर खाना खिलाते हुए। संकष्टी पर व्रत करते हुए। सावन के 16 सोमवार करते हुए। सूर्य को जल चढ़ाते हुए। निर्जला एकादशी करते हुए। पुरुष अगर ये व्रत उपवास दान पुण्य करते भी है तो उनका प्रतिशत बहुत कम होता है। आखिर क्यों?
जबकि हर घर परिवार में अच्छी चीज, पौष्टिक चीज, ताजी चीज, लाभकारी चीज, पुरुषों या लडको को ज्यादा दी जाती हैं तो फिर व्रत उपवास दान पुण्य पूजा पाठ जैसी लाभकारी चीज हर घर में औरतों से ही क्यों कराई जाती है।
इन प्रश्नों को भले ही मैं उठा रही हूं किंतु इनका एकदम सटीक उत्तर मुझे पता है । वैसा दावा मैं नहीं कर रही हूं।
मैं भी अनुमान ही लगा रहीं हूं। किंतु तर्क की कसौटी पर कस कर। दुखी इंसान ही दुःख दूर करने के उपाय खोजता है। पति के प्यार से वंचित स्त्री पति का ध्यान और प्यार पाना चाहती है। खराब परिस्थिति वाली स्त्रियां अपना भाग्य बदलना चाहती हैं। परिवार में यंत्रणा झेल रही बहू उससे मुक्ति का उपाय चाहती है।यानी ये तो तय है की स्त्री पुरुष की तुलना में ज्यादा दुखी होती है। तो वह इसका उपाय ढूंढती है। और दुःखी मन को ढांढस देने में ये पुजारी, साधू महात्मा बहुत मंझे हुए होते हैं। फिर ये जो भी उपाय बताते है महिलाएं ज्यादा कर के वो उपाय करने लगती है। और चमत्कार की उम्मीद करती हैं। पता है औरते सिर्फ उम्मीद और आशा पर ही जीवन काट देती है। और धर्मकर्म कर्मकांड आप को बहुत ज्यादा उम्मीदों से भर देते हैं।
शायद इसी लिए औरते ज्यादा पूजा पाठ करती हैं। और पुरानी पीढ़ी ने किया है तो वह नई पीढ़ी से भी करवाती है और जब तक नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के दबाव से मुक्त होती है वह इन परंपराओं के जाल में पूरी तरह से डूब चुकी होती है।
और भयभीत होती है की अगर उसने ये सब कर्मकांड या रीति रिवाज छोड़ दिया तो कहीं कुछ गलत ना हो जाए। एक तो पहले ही स्त्री के जीवन में कुछ खास अच्छा नहीं चल रहा होता है। उस पर ये डर की कोई अनिष्ट ना हो जाए स्त्री चुपचाप ये व्रत उपवास दान पुण्य करती रहती है। और इस सब की कीमत वह अपने स्वास्थ से चुकाती है। और जेब पर भी भारी पड़ता है। साथ ही समय भी बिगड़ता है।
अब समय आ गया है की अपने जीवन के एक एक पल का उपयोग अपनी इच्छा और अपने विवेक से करें। लकीर की फकीर ना बने। अगर शरीर को कष्ट देने से नदी में स्नान करने से, दान पुण्य करने से, भूखा रहने से , मन को मारने से मन की कामना पूर्ण होती तो मंदिर के पास बैठने वाला भिखारी सबसे ज्यादा सुखी होता। क्यों की वह सबसे ज्यादा भूखा प्यासा और शारीरिक कष्ट झेलता हुआ भगवान के मंदिर के समीप रहता है। इस लिए एक बात तो तय है कि पूजा पाठ का गहरा संबंध मन से है। द्रौपदी ने रजस्वला अवस्था में कृष्ण को पुकारा था। और पुराण कहते हैं श्री कृष्ण उनकी लाज बचाने आए थे। लेकिन आजकल वास्तविक जीवन में रजस्वला अवस्था मे स्त्री को पूजा पाठ जैसी चीजों से दूर रखा जाता है। अब ये बताएं की कौन सी बात सही है और कौन सी बात गलत? यानी पूजा पाठ सब मन का विषय है। उस वक्त द्रौपदी के लिए वही सही था तो उसने वही किया । यानी जो आप का मन कहे वही करें। मन को समझें । बहुत शांत हो कर अपने कार्यो की विवेचना करें तर्क की कसौटी पर भी उसको कसें फिर करे। भेड़ चाल से बचें।
फिर देखिए आप के व्यक्तित्व में गज़ब का आत्मविश्वास आएगा। और कितनी भी विषम परिस्थिति हो कोई ना कोई उपाय आप को आप का मन ही सिखाएगा। आखिर आत्मा ही परमात्मा का अंश है। आत्म को दुखी कर के परमात्मा को खुश कैसे रख सकती हैं आप। आराम से सोचें।और फिर जो भी उचित लगे करें।
— प्रज्ञा पांडे