कविता

मानवता का क्षरण हो रहा

कलिकाल की छाई चहुं ओर रंगत,
मानव क्यों करें तू दुष्टों की संगत,
मानवता का यहां क्षरण हो रहा हैं,
इंसान दुःखों से आहत हो रो रहा हैं।

मचा चारों ओर है आज हाहाकार,
झूठ, छल, कपट का प्रचार प्रसार,
बेईमानी, धोखा, लूटपाट, व्यभिचार,
गंभीर समस्याएं खड़ी सन्निकट विराट ।

परोपकार, क्षमा, सद्गुण सब ये भूला,
झूले मूर्ख बाह्य आडंबरों का अब झूला,
निज स्वार्थ दूसरों को निर्दयी हो तड़पाएं,
जीवन “आनंद” जाने अंजाने घटता जाएं ।

पैसा पैसा केवल चाहे कमाना बस पैसा,
आंखों में बसा ख्वाब माया का ये कैसा,
शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य पूरा बिगड़ा,
करें भाई-भाई संपत्ति का जबरन झगड़ा ।

बड़ों का मान-सम्मान सब ही खो गया,
मानव अहंकारी मतिहीन उदण्ड हो गया,
समय का ये कैसा आया हे ईश्वर खेला,
माया के पीछे भागे दिन रात मन मैला ।

धर्म के नाम पर चले आए दिन लड़ाई,
खून के दुश्मन बने कल थे जो भाई भाई,
सदाचार, प्रेम, विश्वास सब कुछ गंवाया,
कूटनीति से देश निधि को सर्वत्र लुटाया ।

शिक्षा प्रणाली भी डगमगा कर चरमराई,
बच्चे हुए रोगी और अशिक्षा बनी दुखदाई,
अपराधों का धुंआधार बोलबाला छाया,
भ्रमित हो मानव ने एकता को बिखराया ।

— मोनिका डागा “आनंद”

मोनिका डागा 'आनंद'

चेन्नई, तमिलनाडु

Leave a Reply