कविता

बेबसी की बेड़ियां

चाह कर भी चाहतों में वो रंग न भर पता,
पंखों को खुद ही कांट जंजीरों में बंध जाता,
बेबसी की बेड़ियां उसे कमजोर कर देती हैं,
अंदर से खोला कर चकनाचूर कर देती हैं ।

कभी जिम्मेदारियां का पूरजोर सताता बंधन,
कभी कर्मों की गठरी और भाग्य का रूठापन,
कभी समाज की बेरुखी से अशांत बिखरा मन,
कभी अपनों से ही आघात हो मचा हो क्रंदन ।

ये घनघोर अंधेरा ढ़क देता है जीवन का प्रकाश,
टूट जाता फिर आत्मविश्वास खो जाती है आस,
“आनंद” का नहीं होता फिर प्रेम सुखद आभास,
आंसुओं का ज़हर पी मौन हो थमने लगती श्वास ।

खोल दे सारे दुःख बंधन उड़ान भरले मन की,
मत बन तू कठपुतली यूं दूसरों के हाथों की,
अवसाद से निकल कर कोशिश खुश रहने की,
अपने अरमानों का आसमान छू आगे बढ़ने की ।

कमजोर को दबाने की रीत तो है बहुत पुरानी,
न होने दे दुनिया को हावी जो करे खींचातानी,
बेबसी की तोड़ दे जंजीरें बहा दे सारी निशानी,
वरना जिंदगी बन जाएगी एक दर्द भरी कहानी ।

— मोनिका डागा “आनंद”

मोनिका डागा 'आनंद'

चेन्नई, तमिलनाडु

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