समस्या
तैरना सीखें, समझ लें, ताल में दलदल कहाँ है।
आपदा आयी है,सोचें ,समस्या का हल कहाँ है।
क्या सुनें, कबतक सुनें, बल – बुद्धि सबके पास है
ओस से तृष्णा बुझा लें, खोजते क्यों जल कहाँ है।
साथ चलता समय लगता, निमिष में जाता बदल
आज हो जाता विगत है, मुट्ठियों में कल कहाँ है।
रहे धरती पर न जंगल, अब न छायादार तरु
शेष हरियाली नहीं है, प्रकृति का आँचल कहाँ है।
गुरु मोबाइल बन गया है, मनोरंजन रात – दिन
ठगी के वातावरण में, चैन अब दो पल कहाँ है।
— गौरीशंकर वैश्य विनम्र