मुक्तक/दोहा

मोबाइल

मोबाइल में हो गया, मानव स्वत: गिरफ्त ।
अस्त व्यस्त जीवन किया, मस्तिष्क असंतृप्त ।।

करना था जीवन सुगम,पर कर लिया दुरूह ।
मोबाइल के क़फ़स में, कैद हो गई रूह ।।

समय कर रहा व्यर्थ औ कुन्द बुद्धि की धार ।
करना चाहे रील से, अपना जीवन पार ।।

मान रहा सर्वोपरि, एक गूगल का ज्ञान ।
बैठे-बैठे हॅस रहे , धर्म शास्त्र विज्ञान ।।

आगे आगे देखिए, होता है क्या हाल ।
लुप्तप्राय हो जाएगा, लोकचार व्यवहार ।।

— समीर द्विवेदी नितान्त

समीर द्विवेदी नितान्त

कन्नौज, उत्तर प्रदेश

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