गीत
यह उदास तन्हा शाम और ये दिल दुखातीं तन्हाईयां।
जब दिल में ही जो सकून नहीं तो क्या करेंगी अमराईयां।।
जब धूप – छांव के दिन फिरे और हम अंधेरों से घिरे।
इन पलकों पे जो बिठाए थे वो वफ़ा की नजरों से गिरे।।
फिर छोड़कर चलतीं बनीं सब साथ की परछाईयां।।
जब दिल में ही जो सकून नहीं तो क्या करेंगी अमराईयां।।
जब खिजां में पत्ते झड़ गए और सारे भंवरे उड़ गए ।
फिर उजड़े दयार को देख कर आते परिंदे मुड़ गए।।
अब तुम ही बताओ दोस्तों हम क्या करें पुरवाइयां।।
जब दिल में ही जो सकू नहीं तो क्या करेंगी अमराईयां।।
यहां धूप – छांव में बैठकर रिश्तों की बुनी थीं जो चादरें ।
वो सारी की सारी उधड़ी मिलीं अब क्या संभालें क्या करें।।
दर्द उधड़ी हुई इन चादरों की अब कैसे करें तुरपाईयां ।
जब दिल में ही जो सकून नहीं तो क्या करेंगी अमराईयां।।
— अशोक दर्द