ग़ज़ल
ये फैसला तो हो चुका ज्यादा करीब कौन
बाकी बचा ये तय करो है खुश नसीब कौन
जिनके नसीब में नही दो जून की रोटी
उनसे भी रश्क़ कर रहा है ये अजीब कौन
फरमान है सरकार का ढोनी ही पड़ेगी
गो खुद बखुद उठाएगा अपनी सलीब कौन
चादर तो तार तार है ओढ़े या बिछाये
है मुफलिसी ये पूछती मेरा रकीब कौन
बस्ती तमाम लग रही ओढ़े हुए कफ़न
बीमार कौन है यहां और है तबीब कौन
अपने शहर में बेवतन फनकार हैं तमाम
वो खुश नसीब हैं तो भला बद नसीब कौन
— डॉक्टर इंजीनियर मनोज श्रीवास्तव