दोहे
आये थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास।
कैसे जीवन में उगे, हास और परिहास।।
बन्धन आवागमन का, नियम बना है खास।
अमर हुआ कोई नहीं, बता रहा इतिहास।।
निर्बल का मत कीजिए, कभी कहीं उपहास।
आँधी में तूफान में, जीवित रहती घास।।
तुलसी-सूर-कबीर की, मीठी-मीठी तान।
निर्गुण-सगुण उपासना, भूल गया इंसान।।
ग्वाले मक्खन खा रहे, मोहन की ले ओट।
सत्ता के तालाब में, मगर रहे हैं लोट।।
मुखपोथी पर अधिकतर, बातें हैं अश्लील।
भोली चिड़ियों को यहाँ, लील रही हैं चील।।
मुखपोथी के सामने, बड़े-बड़े लाचार।
मतलब के सब लोग हैं, मतलब का सब प्यार।।
— डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’