ग़ज़ल
वो जान तो गया, मुझे पहचान तो गया,
कुछ देर के लिये वो कहा मान तो गया।
थोड़ी लगी है देर मगर साथ वक्त के,
अपना, पराया कौन है पहचान तो गया।
ताउम्र दूर जिसकी निगाहों से रहे पर,
अब शुक्र ख़ुदा का है उसका ध्यान तो गया।
मतलब की सियासत है मगर इसके फेर में,
होली, दिवाली, ईद ओ रमजान तो गया।
रिश्तों के लिए हार भी कूबूल ली मगर,
मौका मिला था जीत का आसान तो गया।
ग़मगीन, उदासी थी ग़ज़ल, गीत की महफिल,
‘जय’ छेड वहाँ एक मीठी तान तो गया।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’