गीत/नवगीत

मधु स्वप्न

अद्भुत चलन संस्सार का
जीता न कोई होड़कर।
कुछ भी न जीवन में बचा
देखा घटाकर – जोड़कर।

यादें पिघल, झरने बहे
कटु शब्द अपनों ने कहे
पथ पर बिछे काँटे मिले
नव दूब – सी फिर – फिर खिले

पुलकित हुई पागल नियति
आकांक्षा – घट फोड़कर।

अनुबन्ध में, सम्बन्ध में
डूबा रहा दुर्गन्ध में
अमृत दिया,विष पी लिया
प्रिय को सु-मन अर्पित किया

निज कर्म का ही फल मिला
सब चल दिए मुख मोड़कर।

मधु स्वप्न ही पलते रहे
खलते रहे, छलते रहे
निज आत्मा को मारकर
प्रतिबन्ध सीमा लाँघकर

प्रतिबिम्ब बन पाए नहीं
प्रत्यक्ष दर्पण तोड़कर।

साहस समझ उन्माद को
कब सुन सका सम्वाद को
बदला न दूषित आचरण
सुन्दर दिखा बस आवरण

छवि बन नहीं पायी मधुर
पुष्पों का रंग निचोड़कर।

— गौरीशंकर वैश्य विनम्र

गौरीशंकर वैश्य विनम्र

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