संस्मरण

माँ

ऐसे तो माँ की याद हरपल आती है , लेकिन कंपकंपाती ठंड में माँ की बहुत याद आती है।

छोटे थे तब माँ के आँचल का नवास हिय में उष्मा भर देता था।

थोडे बडे हुए तब ठिठुरती ठंड में माँ ने हाथों से बुना स्वेटर पहन आराम से घुमते थे।

माँ की ममता का एहसास तन-मन को गर्माहट देता था, और मिलता था गरमागरम ‘लेंटा’

( गेहूं का आटा देसी घी में भूनकर, पानी डाल, उबालते है।

थोडासा नमक, पसंद हो तो गुड या चीनी डालकर बनाया जाता है।) इसे ‘पेजी’ भी कहते थे। कभी ‘गुराब’ याने गुड की राब।

वाह, मजा आ जाता था। कभी कभी पढते-पढते सो जाते, माँ रजाई ओढा जाती। कितना सुकून मिलता था हमें शब्दों में बयां नहीं हो सकता।

‘बेटा, ठंड लग जायेगी। बूटी पहनो, मफलर लपेटो, स्वेटर, जैकेट पहनकर निकलो।’ 

ढेर सारी हिदायतें। कभी कभी गुस्सा भी आता। लेकिन माँ के आगे चुपचाप पहन लेते।

माँ अपने लाडलों को कैसे बचाये रखती हैं, अब महसूस होता है।

बिमार होने पर उसका रातभर जागना, समय पर दवाइयां देना, साथ ही जितने संभव हो घरेलू उपाय करना,

परम प्रभु से प्रार्थना करना, सब याद आता हैं। 

जबरदस्ती सरसों का तेल लगाती तब गुस्सा भी आता। सोंठ, बादाम गिरी, काजू, गोंद डालकर बनाया लड्डू, वाहहह.. स्वाद का जादू था उसमें।

शायद गुड के साथ माँ की ममता भी घुलती थी उसमें।

माँ के आगोश में लेते ही प्यार-दुलार की उष्मा से ठंड से राहत मिल जाती थी।

आज बचपन बिना आँचल की माँ के साये में पल रहा है।

नहीं जानता माँ का वह प्यार-दुलार।

कामकाजी होने की वजह से पालनाघर में या आया बाई के भरोसे पलता बचपन कैसे जाने माँ की ममता का नवास?

हे प्रभु, हर नौनिहाल को माँ पिता, परिवार का भरपूर प्यार मिले।

बड़े बुजुर्ग के आशीर्वाद की छाँव मिले।

प्रभु का प्रतिरूप माँ के आँचल की ठाँव मिले।

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८

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