कविता

धरा की भी सोचो

विध्वंसकों तनिक अपनी धरा की भी सोचो,
उन्हें चहुंओर से न नोचो,
जरा याद करो,उन्हें किस कदर सताए हो,
हर कर्म से जार जार रुलाए हो,
वो तड़प रही है तुम्हारी भ्रष्टता की पराकाष्ठा से,
रो रही तुम्हारी अमानवीय आस्था से,
जो दे रही वायु-जल-रहवास,
उड़ने को नील गगन आकाश,
तो क्यों उतारू हो सब कुछ करने को विनाश,
मानव होकर क्या कुछ कर पाए खास?
तुम्हारी हर अदा में छुपा है महाविनाश,
तभी तो तुझ पर कोई नहीं कर रहा विश्वास,
भ्रष्टता तुम्हारे रग रग में बस चुका है,
सारी व्यवस्था सारा सिस्टम धंस चुका है,
आजादी के बाद भी
अमानवीयता बरकरार रखे हो,
जातिय अत्याचार करने वालों की
फौज तैयार रखे हो,
इंसान को इंसान समझ
हृदय से क्यों नहीं लगाते,
जाति धर्म की कट्टरता से
धरा का सर शर्म से हो झुकाते,
आस्तीन के सांपों के वंशज
क्या सांप ही रहेंगे?
या अपनी मानसिकता में
मानवीयता ला सुधार करेंगे,
मत खेलो विध्वंसता का खेल,
जिस दिन धरा ने खेलना शुरू कर दिया,
तो खत्म हो जायेगी पूरी सभ्यता,
इंसान और उसके साथ उसकी
भ्रष्टता,जातियता और धार्मिकता।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554

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