सिद्धांतों और व्याख्याओं का अजायबघर श्रीमद्भगवद्गीता
श्रीमद्भगवद्गीता पर सैकड़ों प्रसिद्ध तथा सैकड़ों अप्रसिद्ध अनुवाद, व्याख्याएँ, टीकाएँ,भाष्य आदि पचासों भाषाओं में हमारे समक्ष उपलब्ध हैं! तुलसीदास की ‘जिसकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी’ वाली बात श्रीमद्भगवद्गीता पर पूरी तरह लागू होती है! जो जिस भी विचारधारा, सिद्धांत, वाद, मत, मजहब, संप्रदाय आदि से संबंधित है, उसने उसी के अनुकूल इस ग्रंथ को समझाने का प्रयास किया है! यह काम निष्पक्षता से कम अपितु पक्षपात और मजहबी उन्माद में अधिक किया गया है! 2500 वर्षों से तो यह अनवरत चल रहा है! अद्वैतवाद, द्वैतवाद, त्रैतवाद, द्वैताद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, अंचिंत्यभेदाभेद, कर्मवाद, भक्तिवाद, ज्ञानवाद, ध्यानवाद, समाधिवाद,युद्धवाद अहिंसावाद आदि विचारधारा को केंद्र में रखकर इस ग्रंथ को समझने का प्रयास किया गया है!इससे एक तरफ जहाँ इस ग्रंथ की वैचारिक ऊर्वरक का पता चलता है, वही दूसरी तरफ उपरोक्त अधिकांश व्याख्याएँ श्रीमद्भगवद्गीता के मूल उपदेश से बहुत दूर चली गई हैं! श्रीमद्भगवद्गीता के अधिकांश व्याख्याकार कहीं न कहीं सांप्रदायिक, मजहबी और पंथिक पूर्वाग्रह से मुक्त होकर इस ग्रंथ की व्याख्या करने के लिये तत्पर नहीं लगते हैं! बाईबल, कुरान, गुरु ग्रंथ आदि पर विभिन्न मतवादी व्याख्याएँ प्रस्तुत करना जानबूझकर अपनी मौत को अपने पास बुलाना है!इनमें मतवादी कट्टरता और निज मताग्रह बहुतायत से है! मतवादी या निष्पक्ष चिंतन इन ग्रंथों पर न तो हुआ है तथा न ही भविष्य में होने की संभावना है! श्रीमद्भगवद्गीता इसका अपवाद है! भारत में सनातन का प्रत्येक ग्रंथ इसका अपवाद है!क्यों? क्योंकि वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्,दर्शनशास्त्र, श्रीमद्भगवद्गीता आदि सभी ग्रंथों पर वैचारिक चिंतन, विश्लेषण, तर्कयुक्ति , आलोचना, समीक्षा आदि की उन्मुक्त उडान भरने की पूरी स्वतंत्रता उपलब्ध है! यह स्वतंत्रता आजकल आधुनिक विकसित वैज्ञानिक युग के दौरान अंबेडकर, हेडगेवार, सावरकर आदि पर भी उपलब्ध नहीं है! नवबौद्ध कहे जाने वाले लोग भी मजहबी मताग्रह से उतने ही पीड़ित हैं, जितने कि युरोप और मध्य एशिया के सैमेटिक लोग होते हैं!अंबेडकर के समता और समानता के पिछड़ा और दलित वर्गों के कल्याण के कर्मपथ से ये पूरी तरह से विपथ होकर मजहबी कट्टरता में डूबे ये लोग उनके जीवन दर्शन को तहश नहश करने में अग्रणी हैं!
श्रीमद्भगवद्गीता पर की गई व्याख्याओं ने वैचारिक स्वतंत्रता का कुछ अधिक ही प्रयोग हुआ है!इससे श्रीमद्भगवद्गीता का केंद्रीय उपदेश उपेक्षित होकर रह गया है! माना कि श्रीमद्भगवद्गीता युद्ध के मैदान पर नहीं लिखी जाकर महाभारत युद्ध से तीन दशक पश्चात् युद्ध की विभिषिका की भयावहता भावी पीढ़ियों को बतलाने के लिये महर्षि वेदव्यास ने लिखी थी! और यह भी सच है कि महर्षि वेदव्यास ने युद्धभूमि पर दिये गये क्षत्रिय धर्मरुपी युद्धोपदेश के सिवाय भी इसमें बहुत कुछ अन्य भी सम्मिलित कर दिया गया था! लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि श्रीमद्भगवद्गीता से ऊटपटांग कुछ भी निकालकर संप्रदाय खड़े कर दो!इस्कॉन, ब्रह्माकुमारीज,गीता ज्ञानसंस्थानम् तथा रामपाल दास जैसे अपराधियों तक के संप्रदाय खड़े हो गये हैं! जो जिसको अपनी निजी महत्वाकांक्षा के लिये लाभकारी लगा, वह वैसा वैसा ही तोडमरोडकर अर्थ निकालने पर लगा हुआ है!और आश्चर्य यह है कि अधिकांशत: तर्कयुक्ति की उपेक्षा करके यह सब हो रहा है!जिस गीतोपदेश में पदे- पदे तार्किक संवाद मौजूद है, उसकी व्याख्याएँ करने वालों ने सारे तर्क, वितर्क,संवाद आदि को हिंद महासागर में फेंककर कुतर्क और वितंडा का सहारा लेकर नये- नये मत खड़े कर लिये हैं!
शुरू में गीता के अठारह अध्यायों के नाम मौजूद नहीं थे, अपितु यह बाद के व्याख्याकारों की मनोलोक की कल्पना है!अर्जुनविषादयोग से लेकर मोक्षसंन्यासयोग तक में नामानुसार अध्ययन सामग्री उपलब्ध नहीं है! इतर विषय में भी इनमें उपलब्ध हैं!पहले अध्याय में अर्जुन के विषाद के सिवाय योद्धाओं के नाम और अस्त्र शस्त्रों के नाम भी मौजूद हैं! मोक्षसंन्यासयोग में भी मोक्ष और संन्यास के सिवाय कई विषयों का विवरण उपलब्ध है! बाकी अध्यायों का भी यही हाल है!
जहाँ पर गांधी ने गीता की अहिंसापरक व्याख्या की है, वहीं पर गुरुदत्त और आचार्य शीलक राम जैसे विद्वानों ने युद्धपरक व्याख्याएँ की हैं! तिलक ने कर्मपरक व्याख्या की है तो प्रभुपाद ने कृष्णभावनामृत भक्तिवादी व्याख्या की है! विनोबा ने अनासक्ति की बात की है तो राधाकृष्णन् अन्यों की बनाई हुई लकीरों को पीट रहे हैं! श्री अरविंद ने गीतोपदेश से दिव्य मानव निर्माण को बतलाया है तो परमहंस योगानन्द भक्तियोग- हठयोग- प्राणयोग- कुंडलिनी योग-सहजयोग- यहुदीवाद- ईसाईवाद को श्रीमद्भगवद्गीता में तलाश कर रहे हैं!आदि शंकराचार्य ज्ञानपरक अद्वैतवादी मायावादी व्याख्या करते हैं तो रामानुज उनके खंडन में विशिष्टाद्वैतपरक व्याख्या कर रहे हैं!आचार्य रजनीश की व्याख्या जहाँ अपने आपमें विविध दर्शनशास्त्र, नैतिकता, तर्कशास्त्र,योगशास्त्र और कथा, कहानियों,इतिहास, कल्पना,हास्य, व्यंग्य, कटाक्ष, आलोचना, समीक्षा, विश्लेषण से भरी पूरी है, वही पर देशद्रोह तथा हत्या के अपराध में सजा काट रहे रामपाल जैसे अपराधी गीता को काल द्वारा संसारियों को भ्रमित करने के लिये लिखी गई मानते हैं!गीताप्रेस गोरखपुर वाले स्वामी रामसुखदास तथा हनुमान प्रसाद जैसे व्याख्याकारों का गीता ग्रंथ को भारत के जन -जन तक पहुंचाने में सबसे बड़ा योगदान है! इनकी व्याख्याएँ भक्तिवाद को लिये हुये पौराणिकता से सराबोर हैं! स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्ष ग्रंथों की श्रेणी में श्रीमद्भगवद्गीता को स्थान न नहीं दिया है!फिर भी इस ग्रंथ की लोकप्रियता को देखते हुये आर्यसमाज संगठन से निकले हुये सत्यव्रत सिद्धांतालंकार,आर्यमुनि, स्वामी समर्पणानंद तथा दर्शनानंद सरस्वती की व्याख्याएँ स्वदेशी की भावना लिये हुये राष्ट्रवादी हैं!मधुसूदन ओझा की गीता विज्ञान भाष्य भी विद्वानों में काफी प्रसिद्ध है!
परमहंस योगानन्द की व्याख्या ‘ईश्वर अर्जुन संवाद’ नाम से प्रचलित है!यह रहस्यवादी होते हुये भक्तिवादी है!कहा जाता है कि श्रीमद्भगवद्गीता और बाईबल का सर्वाधिक भाषाओं में अनुवाद हुआ है! सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तकों में भी इन्हीं दो पुस्तकों का नाम आता है!गीता प्रेस गोरखपुर का इस ग्रंथ के प्रकाशन और प्रचार में सर्वाधिक योगदान है!सातवलेकर की गीता व्याख्या ‘पुरुषार्थ बोधिनी’ नाम से उपलब्ध है!गुरु गोविंद सिंह की ‘गोविन्द गीता’ भी अपने ढंग की सुंदर रचना है! आतंकवाद का समर्थक होने का आरोप लगाकर रुस में तो श्रीमद्भगवद्गीता पर प्रतिबंध भी लगा दिया गया था!वहाँ के न्यायालय में कयी वर्षों तक मुकदमा भी चला था!कहते हैं कि भारतीय न्यायालयों में अपराधियों को श्रीमद्भगवद्गीता पर हाथ रखकर सच बोलने की कसम खाने की रस्म अंग्रेजी शासन द्वारा वेद, उपनिषद, दर्शनशास्त्र आदि पुरातन ग्रंथों की महिमा को कम करने के लिये की गई थी! उनकी साजिश किसी सीमा तक सफल भी रही है! सनातनी लोग अपने सनातन ग्रंथों वेद, उपनिषद, दर्शनशास्त्र ग्रंथों को भूलते जा रहे हैं तथा उन्हें श्रीमद्भगवद्गीता ही सबसे प्रिय ग्रंथ लगने लगा है!
अध्ययन सुविधा के लिये श्रीमद्भगवद्गीता की संस्कृत टीकाओं को मुख्यतः छह भागों में विभाजित किया जा सकता है!उनके नाम हैं- अद्वैतपरक, द्वैतपरक,द्वैताद्वैतपरक, विशिष्टाद्वैतपरक, शुद्धाद्वैतपरक तथा अचिंत्यभेदाभेदपरक!आर्यभाषा हिंदी में लिखी गई व्याख्याओं के भी उपरोक्त भेद किये जा सकते हैं!इनके सिवाय आर्यभाषा में त्रैतपरक व्याख्याओं के लिये आर्यसमाजी विचारक प्रसिद्ध हैं! संत ज्ञानेश्वर ने मराठी में ज्ञानेश्वरी टीका लिखी है! अन्य भारतीय भाषाओं में श्रीमद्भगवद्गीता की शताधिक व्याख्याएँ मौजूद हैं! इसके सिवाय विदेशीय भाषाओं में भी कई व्याख्याएँ मिलती हैं! विदेशीय भाषा में सर्वप्रथम व्याख्या यूरोपियन चार्ल्स विलकिंस ने सन् 1785 ईस्वी में लिखी थी!यह व्याख्या की अपेक्षा अनुवाद अधिक है!
इस ग्रंथ की वैचारिक विविधता में अपनी निज धारणा की चासनी को घोलकर व्याख्याएँ करना तो भारत राष्ट्र की वैचारिक स्वतंत्रता का प्रतीक है, लेकिन इस वैचारिक स्वतंत्रता पर अपने संप्रदाय खड़ा करके खुद को सही और बाकी को गलत कहना इस वैचारिक स्वतंत्रता का गला घोंटना ही कहा जायेगा! भारत में ही यह प्रयास कई सदी से चल रहा है! श्रीमद्भगवद्गीता और अन्य दर्शनशास्त्र के पुरातन ग्रंथों की मनमानी निज धारणा में लपेटकर व्याख्याएं करते जाने से भारत में अनेक स्वंयभू भगवान् पैदा हो गये हैं! संत संप्रदाय में यह महामारी कुछ अधिक ही मौजूद है! हरेक गुरु अपने आपको परमपिता परमात्मा के रुप में पूजवाने को पगला बना हुआ है!पिछले कुछ दशकों से सनातनी समाज में सदियों से परम आराध्य शंकराचार्यों की घोर उपेक्षा हो रही है तथा संत और सद्गुरु रुपी नकली भगवानों की खूब पूजा हो रही है! सत्ताधारी राजनीतिक दल भी इस गिरावट में सांझीदार बना हुआ है!
हिंदी भाषा के महाकाव्यों में केशवदास की ‘रामचंद्रिका’ को जैसे छंदों का अजायबघर कहा जाता है, ठीक वैसे ही श्रीमद्भगवद्गीता को व्याख्याओं और विचारों का अजायबघर कहा जा सकता है!शंकराचार्य के बाद तो जैसे इस ग्रंथ पर लिखने वालों की बाढ सी आ गई! श्रीमद्भगवद्गीता, ब्रह्मसूत्र और ग्यारह उपनिषदों पर भाष्य करना हरेक सांप्रदायिक आचार्य ने अपनी विद्वता को सिद्ध करने तथा इन तीनों ग्रंथों से अपनी सांप्रदायिक धारणा की पुष्टि करने के लिये आवश्यक जाना है!इन तीनों को एक नया नाम ‘प्रस्थानत्रयी’ दे दिया गया!जबकि इन तीनों ग्रंथों का संसार विरोध या संसार त्यागकर कहीं वन जंगल आदि सुनसान में चले जाने से कोई संबंध नहीं बनता है!आज भी विद्वानों को श्रीमद्भगवद्गीता पर व्याख्या,कथा,जयंती, ज्ञानयज्ञ, प्रवचन,सत्संग आदि करने की चिंता अधिक है तथा इसके अनुसार आचरण करने की अत्यल्प है!
यह ध्यान में रहे कि यह ग्रंथ कोई व्यवस्थित ग्रंथ नहीं होकर विभिन्न विचारधाराओं,सिद्धांतों, मतों,वादों,धारणाओं में समन्वय के लिये एक सार्थक प्रयास है! महाभारत के युद्ध से पहले और बाद में अनेक दार्शनिक मत परस्पर अपने आपको सही तथा अन्यों को गलत सिद्ध करने के लिये तत्पर थे! भगवान् वेदव्यास ने महाकाव्य महाभारत की रचना करके इस कार्य को बखूबी किया!जिस प्रकार से विभिन्न सांप्रदायिक आचार्यों, विद्वानों,व्याख्याकारों, भाष्यकारों और टीकाकारों ने इस ग्रंथ को समझा है तथा खींचतानकर इसके विभिन्न विपरीत अर्थ निकालने के प्रयास किये गये हैं, इसमें निष्पक्षता का अंश बहुत कम है तथा कल्पनाओं की उड़ान भरने का प्रयास अधिक है!यदि कुछ देर के लिये इसको मान भी लें तो क्या यह ग्रंथ पिछले 2500 वर्षों से इस कसौटी पर खरा उतर पाया है?उत्तर नहीं मे ही होगा! समन्वय साधने के लिये लिखी गई श्रीमद्भगवद्गीता पिछले 2500 वर्षों से सांप्रदायिक, वैचारिकता,सैद्धांतिक और दार्शनिक भेदभाव का कारण बनी हुई है!पूर्व वर्णित अद्वैतवादी आदि विभिन्न मतों के समर्थक श्लोकों की संख्या मुश्किल से 50-50 ही होगी, लेकिन विरोधी श्लोकों की संख्या 650-650 के आसपास मिल जायेगी! यदि श्रीमद्भगवद्गीता और इसके सांप्रदायिक आचार्य समन्वय के समर्थक होते तो अपने निज स्थापित मत के विपरीत 650-650 श्लोकों की तोडमरोडकर व्याख्याएँ नहीं करते!लेकिन शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, माधवाचार्य, वल्लभाचार्य, संत ज्ञानेश्वर,प्रभुपाद, गांधी, विनोबा, योगानंद, गीताप्रेस, सातवलेकर आदि सभी ने ऐसा ही किया है!
महाभारत युद्ध के पहले और बाद में व्याप्त वैचारिक और दार्शनिक वैभिन्न्य में समन्वय साधने में श्रीमद्भगवद्गीता ने सफलता अर्जित की थी लेकिन वह सफलता बाद में कायम नहीं रह सकी!और वही श्रीमद्भगवद्गीता वैचारिक और दार्शनिक वैभिन्न्य को बढ़ावा देकर सांप्रदायिक मतों के पैदा होने में कारण बनकर रह गई!समझदार कहलवाने वाले लोग भी किस तरह से अमृत को विष बना देते हैं, श्रीमद्भगवद्गीता ग्रंथ के सांप्रदायिक व्याख्याकार इसका ज्वलंत उदाहरण है!
इसके साथ यह भी गौर करने लायक तथ्य है कि यह किसी अकेले कर्म, भक्ति, ज्ञान, संन्यास,योग,साधना, समाधि आदि का समर्थक नहीं होकर विभिन्न विचारधाराओं में समन्वय साधने का प्रयास है! इस ग्रंथ में दुनिया के सभी मजहबों,संप्रदायों, रिलीजन,मतों,सिद्धांतों, वादों,विचारधाराओं, दर्शनशास्र,फिलासफीज का सार निचोड़ पढने को मिल जायेगा!ऐसे में किसी एक सिद्धांत को खींचतानकर निकालने से इस ग्रंथ की आत्मा ही मर जाती है!यदि तर्कबुद्धि का प्रयोग किया जाये तो इस दोष से बचा जा सकता है!श्लोक, 2/50 में कहा भी गया है-
‘बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते’!!
अर्थात् तर्कबुद्धि से संपन्न व्यक्ति अपने आपको कर्मों के प्रति अच्छे तथा बुरे की आसक्ति से मुक्त करके उन कर्मों को करता है!लेकिन श्रीमद्भगवद्गीता के संदर्भ में हालत ऐसी हो गई है कि बुद्धि का प्रयोग करना जैसे नास्तिकता का प्रतीक बन गया हो!कोई भी गीताचार्य, गीतामनीषी या गीता ज्ञान का प्रवचनकार यह नहीं चाहता कि उसके शिष्य बुद्धिमान,तर्कशील और वादविद्या से संपन्न हों!सबको जी हुजूरी करने वाले अनुयायी चाहियें! जो ‘कर्मयोग’ भारत सहित पूरी धरा पर उपेक्षित और लुप्त होने के समीप था, उसी को महर्षि वेदव्यास ने दोबारा से भगवान् श्रीकृष्ण के मुखारविंद से गीतोपदेश के रूप में कहलवाया है! देखिये-
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्…. स कालेनेह महता योगो नष्ट: परंतप …. स एवायं मया तेद्य योग: प्रोक्त: पुरातन:’!!
योग के संदर्भ में शायद अब फिर से वही महाभारत वाले हालात पैदा हो गये हैं!विभिन्न व्यापारियों के भेष में बाबा,स्वामी, संन्यासी, योगाचार्य,संत,तांत्रिक आदि ‘कर्मयोग’ की सनातन परंपरा को भूलकर तथा आसन, प्राणायाम, धारणा आदि को बिगाडकर व्यायाम, तीव्र श्वसन और एकाग्रता के द्वारा केवल व्यापार करने पर लगे हुये हैं!
यदि समकालीन युग में श्रीमद्भगवद्गीता के माध्यम से विभिन्न संप्रदायों, मजहबों,विचारधाराओं, धारणाओं और विश्वासों में समन्वय की स्थापना किया जाना संभव है तो हमारे गीता-मनीषियों तथा गीताचार्यों द्वारा क्यों नहीं किया जा रहा है?पूरे विश्व में नहीं तो भारत में ही कर दो! भारत में नहीं तो हरियाणा में ही कर दो! हरियाणा में नहीं तो कुरुक्षेत्र में ही कर दो! और कहीं नहीं तो इन संतों, मुनियों, कथाकारों, कथावाचकों, गीताचार्यों में ही समन्वय बना दो!इनकी परस्पर सिर फुटौवल सरेआम देखने को मिलती है!
जो कोई भी या जिस किसी ने भी श्रीमद्भगवद्गीता को किसी एक ही मत, संप्रदाय, मजहब, विचारधारा, धारणा या विश्वास का ग्रंथ कहकर इसका प्रचार किया है या इस पर लेखन किया है, वो सभी श्रीमद्भगवद्गीता के विरोधी ही समझे जाने योग्य हैं!समन्वय साधने वाले ग्रंथ किसी एक विशेष ढांचे या चौखटे या दृष्टिकोण या विचारधारा से आबद्ध नहीं होते हैं!
— आचार्य शीलक राम