कविता

धर्म तुम रख लो

इंसान हूं इंसान होने की अहमियत पर
खुलकर फक्र करना चाहता हूं,
गगन में उड़ते मानसिकता में रहना चाहता हूं,
ये सब मुझे दे दो धर्म तुम रख लो,
चाहो तो मेरी इंसानियत परख लो,
न सिखाओ मुझे धर्म का स्वाद,
मैं आज भी महसूस कर रहा हूं
नैतिकता,सत्य और दया है मुझमें,
मानव हूं मानवता का साया है मुझमें,
मुझे मेरे पुरखों ने नहीं सिखाया नफरत,
मुझे नहीं है बहत्तर हूर और स्वर्ग की हसरत,
मुझे अनुभव है उस पीड़ा की
जो तथाकथित अस्पृश्य रह झेलना पड़ता है,
किसी की मनः स्थिति और खुशी से
बेवजह आरोप लगा खेलना पड़ता है,
शायद उन लोगों को नहीं होती होगी पीड़ा
दंगे जब भड़कते हैं,
उकसाने वालों के बच्चे विदेशों में
पर मेरे बच्चे इस त्रासदी से तड़पते हैं,
मगर फिर भी नहीं तुमसे ईर्ष्या
तुम्हारे नीयत से नहीं हूं अंजान,
हां हो अगर बनना सिर्फ इंसान,
तो आओ इंसानियत का स्वाद चख लो,
ये सब मुझे दे दो धर्म तुम रख लो,
क्यों लगाऊं चक्कर मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारे,चर्च में,
नहीं जाना मुझे तुम्हारे जन्नत,स्वर्ग या नर्क में,
मानता हूं सभी को अपना मित्र भाई,
कट्टरता दूर है मुझसे नहीं हूं कसाई,
मानव हो मानवता की भट्ठी में आओ तप लो,
इंसानियत मुझे दे दो धर्म तुम रख लो।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554

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