कविता

अनंत की यात्रा

लडखडाते पैर
हिलते हुये हाथ
हर रिश्ते में जैसे
हो गये हैं अनाथ

झुकी हुई गर्दन
वाक् मौन सी
पूछने में अशक्त
जिंदगी कौनसी

सपने अधूरे से
हकीकत से दूर
फिर भी आशा
बाकी भरपूर

स्मरण शक्ति
हुई कमजोर
जिसके मद में
कभी भावविभोर

अतीत बचपन
स्वर्णिम मालूम
लेकिन अब वह
हुआ गुमसुम

अतीत चला गया
भावी अंधकारमय
एक विचित्र सा
चहुंदिशि भय

कोई भी सपना
हुआ नहीं पूरा
जान पड़ता है
सब कुछ अधूरा

जो भी आजीवन
मेहनत से कमाया
अंत समय पर
काम नहीं आया

सभी चिंतारत हैं
कब तक मरेगा
कब तक पता नहीं
हमें दुखी करेगा

मरने से पहले
सीख लो मरना
आत्मस्थित होकर
अनंत पथ गुजरना

अन्यथा आवागमन
चलता ही रहेगा
भौतिक प्रकृति
जंजाल उभरेगा

द्रष्टा बनकर दृश्य
साक्षी पर आना
परमात्मस्वरुप फिर
कण कण भर जाना

— आचार्य शीलक राम

आचार्य शीलक राम

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