गजल
जाने कैसे टूट बिखर जाते हैं जमाने में लोग,
यारा हम तो लहर हैं समंदर से लौट जाते हैं ।
शहर खामोश हो जाते है तुफानों के शोर से,
मगर बंद कमरों में तो दिये जलाए ही जाते हैं ।
ये जमाना भी देखेगा पलट कदमों के निशां मेरे,
चलो हम जाते -जाते छाप अपनी छोड़ जाते हैं ।
एक दिन टूटना तय ये सारे उलझनों की लड़ियाँ ,
हो हौसले अगर बुलंद तो ये बिखर ही जाते हैं ।
डरता कौन है अब कहो मुश्किलों के दौर से,
हलाहल पी कर ही तो लोग ‘शिव ‘हो जाते हैं।
— शिवनन्दन सिंह