कविता

गरीबी और सर्दी

गरीब झोपड़ियों में बसी है दर्द भरी तन्हाई,
सर्दी से बचने के लिए नहीं है एक भी रजाई,
जीवन जीने की अंतहीन जंग लड़ी जा रही,
ज़ालिम भूख भी बेरहमी से बहुत तड़पा रही ।

तन और मन दोनों को है असहनीय कष्ट बड़ा,
सूरज भी नहीं निकले जिद पर जाने क्यों अड़ा,
ये कड़ कडा़ती शुष्क सर्दी जुल्मों कहर ढा रही,
हाय राम ठंडी हवा रुह को ज्यादा ही सता रही ।

सांसों का मंजर है कि जीवन थमता ही नहीं,
आस का समंदर भी कंबख्त घटता ही नहीं,
जिंदगी किन पुराने कर्मों का हिसाब ले रही,
बदहाली सवाल बन है खड़ी अभिशाप दे रही ।

ठिठुरन, गलन और ऊपर से बेमौसम बरसात,
बद्तर हो गए हैं जीवन के बिगड़ते से हालात,
हमें देख कर किसी को करूणा नहीं आ रही,
क्यों मानवता कलयुग में लुप्त होती जा रही ।

अमीरी गरीबी के फर्क से पहले हम इंसान हैं,
हर दिल में सनातन कहता बसता भगवान है,
हम पर सहानुभूति क्यों नहीं दिखाई जा रही,
क्यों क्रूरता सितम इतना गरीबों पर ढा रही ।

“आनंद” का नामोनिशान नहीं गम के पहरे है,
दुनिया से मिले जख्मों के घाव भी बड़े गहरे हैं,
जगत पिता तेरी रहमत क्यों नहीं इधर बरस रही,
बूढी मां खाट पर किसी रुप में तेरी राह तक रही ।

— मोनिका डागा “आनंद”

मोनिका डागा 'आनंद'

चेन्नई, तमिलनाडु

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