लघुकथा

शर्मिंदा

रेलवे स्टेशन के बाहर सुनील बस स्टैंड जाने के लिए किसी आटो रिक्शा का इंतजार कर रहा था। तभी एक आटो रिक्शा वाला तीस रूपए में बस स्टैंड जाने के लिए तैयार हो गया। सुनील ने अपने दो भारी-भरकम बैग आटो रिक्शा में रखे और स्वयं भी आटो रिक्शा में सवार हो गया। आटो रिक्शा में सुनील अकेला ही था, किसी अन्य सवारी को नहीं आता देख उसने अपने एक बैग को आटो रिक्शा की सीट पर ही रख दिया था, ताकि पैरों में सामान आने से उसे आटोरिक्शा में बैठने से कोई दिक्कत/परेशानी न हो। यह सर्दी का मौसम था और सुनील ने अपने चेहरे को मफलर से ढक रखा था। आटो रिक्शा वाला सुनील के अलावा अभी भी एक अन्य सवारी के इंतजार में ही था कि थोड़ी देर में एक लंबे व्यक्ति ने जो कि कंबल ओढ़े हुआ था, बस स्टैंड जाने के लिए उसी आटो रिक्शा को रूकवाया। आटो रिक्शा वाले ने आटो में उस व्यक्ति को बिठाया और गंतव्य की ओर चल पड़ा। लंबा व्यक्ति जिसने मोटा कंबल ओढ़ रखा था, आटो रिक्शा में उस साइड में बैठ गया, जिधर सीट पर सुनील का सामान से भरा हुआ भारी-भरकम बैग रखा हुआ था। आटोरिक्शा में सवार होते ही कंबल ओढ़े हुए उस व्यक्ति ने अपना दांया हाथ तेजी से बैग के ऊपर रख दिया और संभल कर बैठ गया। इधर, आटोरिक्शा लगातार गंतव्य की ओर बढ़ता चला जा रहा था कि तभी सुनील ने आटो रिक्शा में बैठे उस व्यक्ति की ओर देखते हुए थोड़ा गुस्से में कहा -‘भाईसाहब ! ज़रा ध्यान से बैठे और हां बैग के ऊपर अपना भारी हाथ न रखें, दरअसल बैग में बच्चों के लिए कुछ टूटने वाला कीमती सामान रखा हुआ है और आपके हाथ के वजन से इसमें रखा सामान टूट सकता है।’ कंबल ओढ़े हुए वह व्यक्ति सुनील की इतनी बात सुनकर एकदम सकपका गया और उसने सुनील से कहा-‘ ओह ! भाईसाहब मुझसे गलती हो गई ! मुझे नहीं पता था कि इसमें आपका कुछ टूटने वाला कीमती सामान रखा हुआ है। दरअसल, वो क्या है कि मेरे एक ही हाथ है न ! आटोरिक्शा जब ऊबड़-खाबड़ सड़क पर तेजी से सरपट दौड़ता है न, तब कोई भी एकदम से आटोरिक्शा में अपना बैलेंस नहीं बन पाता है न, इसलिए थोड़ा सहारा लेने के लिए,  भूलवश मैंने आपके सामान से भरे बैग पर अपना हाथ रख दिया। इसके लिए मुझे बहुत खेद है और मैं शर्मिन्दा हूं।’ उस व्यक्ति की यह बातें सुनकर  सुनील उसे एकटक देखता ही रह गया। दरअसल, सुनील ने कंबल ओढ़े व्यक्ति को आटोरिक्शा में बैठते समय एकबारगी देखा जरूर था, लेकिन कंबल ओढ़े रहने के कारण उसे इस बात का अहसास ही नहीं हुआ था कि जो व्यक्ति आटो में उसके साथ बैठा था, उसके एक ही हाथ था। सुनील अब  मन ही मन अपने-आप को शर्मिंदा महसूस कर रहा था।

— सुनील कुमार महला

सुनील कुमार महला

फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार, उत्तराखंड। मोबाइल 9460557355 mahalasunil@yahoo.com